पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (From Tunnavaaya to Daaruka ) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar)
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२. व्यक्तित्व को अद्भुत शोभा प्रदान करने वाला होने के कारण ही दक्ष - बल से युक्त हमारा यह मनश्चैतन्य अर्थात् मन एक दिन देह के अभिमान से युक्त हो जाता है और देह का अभिमानी होकर स्वयं को सर्वोपरि मानता हुआ जिस आत्म तत्त्व से अनुप्राणित होता है, उसे ही अपना सेवक मानकर विपरीत व्यवहार करने लगता है अर्थात् स्वामी के पद पर विराजमान आत्मतत्त्व सेवक की भांति तथा सेवक के पद पर विद्यमान मन स्वामी की भांति बन जाता है । कथा में दक्ष प्रजापति रूप मन का महादेव रूप आत्मतत्त्व को भला - बुरा कहना इसी तथ्य को इंगित करता है । ३. देह में क्रियाशील शक्तियां देवता कहलाती हैं और इन शक्तियों का मूल स्रोत है - आत्मा । देहाभिमानी मन देह - केन्द्रित दृष्टि से युक्त होने के कारण देह में क्रियाशील इन देव रूप शक्तियों को तो स्वीकार करता है, परन्तु उन शक्तियों के मूल स्रोत आत्म तत्त्व के प्रति उसकी दृष्टि सर्वथा तिरोहित ही रहती है अर्थात् देहाभिमानी मन (मनुष्य) जीवन में सर्वत्र व्याप्त आत्म तत्त्व को स्वीकार नहीं करता । आत्म तत्त्व के प्रति इस अस्वीकार भाव को ही कथा में यह कहकर इंगित किया गया है कि दक्ष प्रजापति ने महादेव को यज्ञ में भाग प्राप्त न होने का शाप दिया । ४. मन दो प्रकार का संकल्प कर सकता है । 'मैं शुद्ध शान्तस्वरूप आत्मा हूं' - इस संकल्प के अनुसार आचरण मनुष्य के जीवन में शान्ति और आनन्द लाता है । इसके विपरीत 'मैं देहरूप हूं' - इस संकल्प के अनुसार आचरण जीवन में अहंकार को जन्म देता है । 'मैं शुद्ध शान्तस्वरूप आत्मा हूं' इस संकल्प के अनुसार आचरण करने पर जीवन में जो आनन्द आता है, उसे ही कथा में महादेव का प्रधान अनुयायी नन्दीश्वर कहा गया है तथा ' मैं देहमात्र हूं' इस संकल्प के अनुसार आचरण करने पर जीवन में जिस अहंकार का प्रादुर्भाव होता है, उसे ही दक्ष(मन) का 'बस्तमुख' हो जाना कहा गया है । जैसे बस्त अर्थात् बकरा ' मैं मैं' करता है, वैसे ही अहंकार युक्त मन वाला मनुष्य भी 'मैं मैं ' करने लगता है । ५. 'मैं देहमात्र हूं ' इस संकल्प के कारण मन के अहंकार युक्त होने पर मनुष्य के भीतर कार्यरत उच्चतर चेतनाएं भी अपने कार्य से विमुख होकर विपरीत कार्य करने लगती हैं । ये उच्चतर चेतनाएं ही ब्राह्मण कहलाती हैं तथा इनके विपरीत आचरण को ही कथा में नन्दीश्वर द्वारा ब्राह्मणों का अभिशप्त होना कहा गया है । भाग ३ - दक्ष यज्ञ विध्वंस - एक विवेचन दक्षता प्रदायक अद्भुत दक्ष - बल रखने वाला मनुष्य का मन देहाभिमान से युक्त होकर अपने ही दक्षता के यज्ञ को सफल नहीं कर पाता । दक्षता के इस यज्ञ की असफलता के कारणों का विवेचन यहां प्रस्तुत है । सर्वप्रथम कथा को जान लेना आवश्यक है । कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है - एक बार दक्ष ने बृहस्पतिसव नामक महायज्ञ का आयोजन किया परन्तु उसमें शिव को निमन्त्रित नहीं किया । पिता के द्वारा निमन्त्रित न होने पर भी सती ने यज्ञ में सम्मिलित होने का शिव से आग्रह किया और शिव के मना करने पर भी बन्धुजनों के स्नेहवश सती माता - पिता के घर चली गई । सती सेवकों के साथ दक्ष की यज्ञशाला में पहुंची । सती ने देखा कि उस यज्ञ में शिव के लिए कोई भाग नहीं दिया गया है और पिता दक्ष उनका बडा अपमान कर रहा है । इससे उन्हें बहुत क्रोध हुआ और उन्होंने पति शिव की प्रशंसा तथा पिता की निन्दा करते हुए योगाग्नि द्वारा अपनी देह का त्याग कर दिया । सती का यह अद्भुत प्राणत्याग देख शिवजी के पार्षद दक्ष को मारने के लिए उद्धत हुए, परन्तु भृगु नामक अध्वर्यु द्वारा यज्ञकुण्ड से उत्पन्न हुए ऋभुओं के आक्रमण से वे सब इधर - उधर भाग गए । नारद जी के मुख से सती के प्राणत्याग का समाचार सुनकर शिव अत्यन्त क्रोधित हुए । उनके क्रोध से रुद्र(वीरभद्र) का प्रादुर्भाव हुआ । शिव ने रुद्र को दक्ष - यज्ञ नष्ट करने की आज्ञा दी । शिव की आज्ञा से रुद्र के सेवकों ने दक्ष के यज्ञ मण्डप को तहस - नहस कर डाला । यज्ञ के ऋत्विज, सदस्य और देवता लोग जहां तहां भाग गए । रुद्र/वीरभद्र ने भृगु की दाढी - मूंछ नोच ली, भग देवता की आंखें निकाल ली, पूषा के दांत तोड दिए और दक्ष का सिर धड से अलग कर दिया । यज्ञ का विध्वंस करके वे कैलास पर्वत को लौट गए । कथा में निहित रहस्यत्मकता अब हम कथा में निहित रहस्यत्मकता को समझने का प्रयास करे - १. कथा में कहा गया है कि दक्ष ने बृहस्पतिसव नामक महायज्ञ का आयोजन किया परन्तु उस यज्ञ में शिव को निमन्त्रित नहीं किया । दक्ष मनुष्य का अहंकार युक्त मन(मनश्चैतन्य अथवा जीवात्मा) है और शिव आत्म तत्त्व का वाचक है । बृह्स्पतिसव नामक यज्ञ दक्षता - प्राप्ति का यज्ञ है । अहंकार युक्त मनुष्य जीवन में दक्षता तो प्राप्त करना चाहता है, परन्तु शिव को निमन्त्रित नहीं करता अर्थात् देहाभिमानी मनुष्य स्वयं को देहमात्र मानकर तथा उस देह को ही सर्वोपरि समझकर अपने ही वास्तविक स्वरूप ( मैं शान्तस्वरूप आत्मा हूं ) का न तो स्मरण करता है तथा न ही उसे धारण करता है । इससे स्वामी - सेवक सम्बन्ध का विपर्यय हो जाता है अर्थात् स्वामी रूप रथी सेवक रूप रथ को नहीं चलाता, अपितु रथ ही रथी को चलाने लगता है । दक्षता के यज्ञ में सबसे पहली बाधा यही है । २. कथा में कहा गया है कि पिता द्वारा निमन्त्रित न होने पर भी सती स्वजनों के स्नेहवश पिता के घर चली गई । सती का अर्थ है - आत्म तत्त्व के प्रति सत्यता बुद्धि अर्थात् बुद्धि का यह संकल्प कि आत्मा ही सत्य है । प्रथम भाग में हम स्पष्ट कर चुके हैं कि बुद्धि में आत्म तत्त्व के प्रति यह सत्यता का संकल्प तब उत्पन्न होता है जब हमारे मनश्चैतन्य(मन) में विद्यमान दक्ष नामक बल उच्च मन की सक्रियता(प्रसूति) के सहयोग से प्रकट होता है, अर्थात् प्रकट हुआ दक्ष - बल सती का जन्मदाता है । मनश्चैतन्य (मन) के दक्ष नामक बल और आत्म तत्त्व के प्रति सत्यता बुद्धि रूपी सती के इसी पुराने सम्बन्ध को कथा में पिता - पुत्री का सम्बन्ध कहकर निरूपित किया गया है । इसी सम्बन्ध से प्रेरित होकर आत्म तत्त्व के प्रति सत्यता बुद्धि रूपी सती पिता दक्ष के घर जाने के लिए आग्रह करती है अर्थात् एक ओर तो मनुष्य की सती बुद्धि आत्म तत्त्व रूप महादेव से संयुक्त रहती है तथा दूसरी ओर पुराने सम्बन्ध के आधार पर मन से भी जुडी रहती है । मन के परिवर्तित स्वरूप (देहाभिमानता) से अनभिज्ञ रहकर उस मन के समीप जाना ही सती बुद्धि के विनाश का कारण है । ३. कथा में कहा गया है कि पिता के यज्ञ में पहुंचकर सती ने शिव का निरादर देखा और स्वयं को योगाग्नि से भस्म कर दिया । इस कथन द्वारा यह इंगित किया गया है कि मनुष्य के देहाभिमान से युक्त मन में जब आत्म सत्ता के प्रति सम्मान तथा स्वीकार भाव नहीं होता , तब उसकी बुद्धि में यह सत्य संकल्प कि आत्म तत्त्व ही सत्य है - कैसे टिक सकता है? वह तो स्वाभाविक रूप से ही भस्मसात् हो जाता है । आत्म तत्त्व के प्रति सत्य संकल्प का स्वाभाविक रूप से भस्म होना ही सती का योगाग्नि से भस्म होना कहा गया है । भाव यह है कि देहाभिमानी मनुष्य को जैसे ही आत्म स्वरूप की विस्मृति होती है, वैसे ही उसकी बुद्धि से आत्मा की सत्य स्वरूपता का संकल्प भी समाप्त हो जाता है । ४. कथा में कहा गया है कि सती का प्राणत्याग देखकर सती के साथ आए हुए शिव के सेवक दक्ष को मारने को उद्धत हुए , परन्तु भृगु द्वारा उत्पन्न किए गए ऋभुओं के आक्रमण से वे सब इधर - उधर भाग गए । जैसा कि पहले कहा जा चुका है, सती के प्राणत्याग का अर्थ है - आत्म - तत्त्व के प्रति बुद्धि के सत्य संकल्प का नष्ट हो जाना । मन के देहाभिमान से ग्रस्त हो जाने पर आत्म तत्त्व के प्रति सत्यता बुद्धि का नाश हो जाता है । प्रस्तुत कथन में शिव के सेवक मनुष्य के सकारात्मक संकल्पों के तथा भृगु से उत्पन्न हुए ऋभुगण देहाभिमान युक्त मन अर्थात् दक्ष की सहायक ज्ञानशक्तियों के प्रतीक हैं । यहां यह इंगित किया गया है कि मन की देहाभिमान से ग्रस्तता एक प्रबल नकारात्मक संकल्प है । इस नकारात्मक संकल्प के उदय से सत्यता बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य के सकारात्मक संकल्पों में बहुत उथल - पुथल होती है और वे इस प्रबल नकारत्मक संकल्प(देहाभिमान रूप दक्ष) को मारना भी चाहते हैं, परन्तु प्रबल नकारात्मक संकल्प की सहायक शक्तियों(ऋभुओं) के सामने वे टिक नहीं पाते और बिखर जाते हैं । ५. कथा में कहा गया है कि सती के प्राणत्याग का समाचार नारद जी ने महादेव जी से निवेदित किया । पौराणिक साहित्य में 'नारद' समग्रता में स्थित एक ऐसी चेतना है जो पृथ्वी लोक से लेकर ब्रह्मलोक तक सर्वत्र अबाधित गति से भ्रमण करती है और एक स्थान के समाचार दूसरे स्थान तक पहुंचाती रहती है । आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में इस नारद चेतना को ही व्यष्टि और समष्टि में क्रियाशील 'आकर्षण का नियम' नाम दिया गया है । इस नियम के अनुसार मनुष्य जैसा सकारात्मक अथवा नकारात्मक भाव या विचार रखता है, उस भाव या विचार की तरंगें तुरन्त अस्तित्व में पहुंच जाती हैं । महादेव सर्वत्र व्याप्त आत्म तत्त्व का प्रतीक है । अतः सती के प्राणत्याग का समाचार नारद द्वारा महादेव के पास पहुंचने का अर्थ हुआ - देहाभिमान के उदय से आत्मा की सत्यता के नाश रूप नकारात्मक संकल्प का तरंग रूप में आकर्षण के नियम द्वारा अस्तित्व में पहुंच जाना । ६. कथा में कहा गया है कि सती का प्राणत्याग सुनकर महादेव अत्यन्त क्रुद्ध हुए । उनके शरीर से रुद्र(वीरभद्र) का आविर्भाव हुआ । महादेव ने रुद्र को दक्षयज्ञ ध्वंस करने की आज्ञा दी । यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि मनुष्य के मन के सकारात्मक अथवा नकारात्मक भाव या विचार की तरंगें आकर्षण के नियम(नारद) द्वारा अस्तित्व(ब्रह्माण्ड) में पहुंचती हैं और वहां विद्यमान तरंगों से प्रतिक्रिया करती हैं । अस्तित्व का अर्थ है - आत्म तत्त्व का अपनी निर्माण शक्ति(ब्रह्मा), पालन शक्ति(विष्णु) तथा संहार शक्ति(महादेव ) के साथ विद्यमान होना । मनुष्य के विचारों की तरंगें अस्तित्व में पहुंच कर वहां विद्यमान समान तरंगों से प्रतिक्रिया करके अधिक प्रबल हो जाती हैं और पुनः अपने स्रोत तक (उसी मनुष्य तक जहां से वे तरंगें प्रवाहित हुई थी) लौटकर अपने स्रोत को लाभ अथवा हानि पहुंचाती हैं । अर्थात् सकारात्मक विचार 'मैं शान्त स्वरूप आत्मा हूं' की तरंगें अस्तित्व में पहुंचकर वहां विद्यमान सकारात्मक तरंगों के साथ प्रतिक्रिया करके समान समान को आकर्षित करता है(like attracts like) के नियम के आधार पर अधिक प्रबल होकर अपने स्रोत तक लौटकर स्रोत को (मनुष्य मन को ) लाभ पहुंचाती हैं । इसके विपरीत नकारात्मक विचार 'मैं देहस्वरूप हूं' की तरंगें अस्तित्व में पहुंचकर वहां विद्यमान नकारात्मक तरंगों के साथ प्रतिक्रिया करके अधिक प्रबल होकर अपने स्रोत तक लौटकर स्रोत को हानि पहुंचाती हैं । प्रस्तुत कथा में इसी तथ्य को निरूपित किया गया है । महादेव का अर्थ है - अस्तित्व के रूप में विद्यमान आत्म तत्त्व । महादेव के क्रुद्ध होने का अर्थ है - अस्तित्व में पहुंची हुई नकारात्मक तरंग का वहां विद्यमान नकारात्मक शक्ति के साथ प्रतिक्रिया करना । महादेव के क्रोध से रुद्र(वीरभद्र) के उत्पन्न होने का अर्थ है - उस प्रतिक्रिया के फलस्वरूप नकारात्मक शक्ति का प्रबल स्वरूप धारण कर लेना । महादेव द्वारा रुद्र को दक्षयज्ञ के विध्वंस की आज्ञा देना उपरोक्त वर्णित नियम की अनिवार्यता को इंगित करता है । व्यष्टि तथा समष्टि में जो नियम क्रियाशील है, उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती । अस्तित्व में पहुंची हुई नकारात्मक तरंग प्रतिक्रिया स्वरूप प्रबल होकर अपने स्रोत तक अवश्य ही लौटेगी । ७. कथा में कहा गया है कि महादेव से आज्ञा पाकर रुद्र(वीरभद्र) दक्ष के यज्ञ में पहुंचा और यज्ञमण्डप को तहस - नहस कर दिया । यज्ञमण्डप मनस क्षेत्र को इंगित करता है । मनुष्य के नकारात्मक विचार की तरंगें अस्तित्व में पहुंचकर, प्रबल होकर जब वापस अपने स्रोत तक लौटती हैं, तब सबसे पहले उसी देहाभिमानी मनुष्य के मनस क्षेत्र को तहस नहस करती हैं । तहस - नहस करने का अर्थ यह है कि एक नकारात्मक विचार नाना नकारात्मक विचारों को उत्पन्न करके मन को इतना आन्दोलित कर देता है कि वह कभी - कभी आत्महत्या जैसे अनपेक्षित विचार से भी संयुक्त हो जाता है । मन में निरन्तर अनjर्गल विचारों की हलचल मची रहती है और अन्ततः मन अत्यन्त अशान्त बना रहता है ।
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