पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (From Tunnavaaya to Daaruka ) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar)
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८. कथा में कहा गया है कि रुद्र ने दक्ष यज्ञ में पहुंचकर दक्ष का सिर काट दिया, पूषा के दांत तोड दिए, भग को अन्धा कर दिया और भृगु की दाढी मूंछ नोच ली । यह कथन इंगित करता है कि देह केन्द्रित चेतना से उत्पन्न अहंकार रूप नकारात्मक शक्ति न केवल मनुष्य के मनस क्षेत्र को ही अशान्त बनाती है, अपितु उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व को ही प्रभावित करती है । दक्ष का सिर काटना इस बात का संकेत है कि नकारात्मक शक्ति अहंकारी मन से शनैः - शनैः विवेक - विचार का हरण कर लेती है । पूषा देवता वह शक्ति है जो मनुष्य शरीर का पालन करती है । दन्त शब्द लक्ष्य का सूचक है । अतः पूषा के दांत तोडने का अर्थ है - शरीर में क्रियाशील पालन शक्ति का लक्ष्यविहीन हो जाना । भग देवता वह शक्ति है जो मनुष्य के भीतर पडे हुए संस्कार रूप बीजों की कृषि करती है अर्थात् जैसे मनुष्य बाह्य रूप में बीजों को बोकर उनकी खेती करता है, वैसे ही मनुष्य के भीतर जन्म - जन्मान्तरों में इकट्ठेv किए हुए जो संस्कार रूप बीज विद्यमान रहते हैं, उन बीजों को बोकर उनकी कृषि करके उत्तम, मध्यम अथवा अधम फल को प्रदान करने वाला देवता भग है । अतः भग का अर्थ है - भाग या भाग्य । भाग्य द्वारा प्रदान किया गया प्रत्येक फल मनुष्य को स्वीकार करना ही होता है, परन्तु मन की नकारात्मक शक्ति इस भाग को भी अन्धा बना देती है, अर्थात् मनुष्य अज्ञान युक्त होकर जीवन में आई अच्छी, बुरी परिस्थिति को न तो स्वीकार करता है तथा न उसका उत्तरदायित्व स्वयं वहन ही करता है, अपितु दूसरे को ही उसके लिए जिम्मेदार ठहराता है । भृगु देवता वह शक्ति है जो ज्ञानाग्नि द्वारा मनुष्य के कर्मों को भस्म कर देती है । भृगु देवता के दाढी - मूंछ नोंच लेने का अर्थ है - सम्मान छीन लेना । मनुष्य के भीतर कितना भी ज्ञान भरा हो, परन्तु यदि वह स्वयं को देहस्वरूप मानकर नकारात्मक विचारों से ग्रस्त हो, तब वह प्रभूत ज्ञान भी शोभनीय नहीं होता ।
भाग ४ - दक्ष यज्ञ की पूर्ति प्रथम भाग में कहा गया है कि प्रत्येक मनुष्य का मन दक्ष नामक बल से युक्त है । यह दक्ष - बल मन(मनश्चैतन्य) में अप्रकट रूप से रहता है, परन्तु उच्च मन की सक्रियता से संयुक्त होकर प्रकट हो जाता है । तब इससे अनेक प्रकार की ऐसी - ऐसी विशिष्टताएं उत्पन्न होती हैं जो व्यक्तित्व को दक्षता(कुशलता) प्रदान करती हैं । द्वितीय एवं तृतीय भाग में कहा गया है कि व्यक्तित्व को दक्षता प्रदान करने वाला मनश्चैतन्य का यही दक्ष नामक बल जब देहाभिमान से युक्त हो जाता है, तब इसका दक्षता प्रदान करने वाला यज्ञ सफल नहीं होता क्योंकि देहाभिमान की नकारात्मक शक्ति समान शक्तियों को आकर्षित करके दक्षता के यज्ञ को ध्वस्त कर देती है । प्रस्तुत चतुर्थ भाग में कहा गया है कि देहाभिमान की नकारात्मक शक्ति से नष्ट हुआ दक्षता का यज्ञ आत्म - स्वरूप का स्मरण करके पुनः सम्पन्न किया जा सकता है । कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है - यज्ञ - विध्वंस से डरे हुए देवता यज्ञ के ऋत्विज और सदस्यों को साथ लेकर ब्रह्मा जी के पास गए । ब्रह्मा जी उन सबको साथ लेकर शिव के समीप पहुंचे । शिव कैलास पर्वत पर वट वृक्ष की छाया में विराजमान थे । परस्पर प्रणाम के बाद ब्रह्मा जी ने शिव से अपूर्ण यज्ञ का पुनरुद्धार करने, यजमान दक्ष के जी उठनेv, भृगु के दाढी मूंछ से युक्त हो जाने, भग देवता को नेत्र मिलने, पूषा के दांतयुक्त होने तथा घायल ऋत्विजों के पुनः अंग - प्रत्यंग से युक्त हो जाने के लिए प्रार्थना की । ब्रह्मा जी के इस प्रकार प्रार्थना करने पर शिव ने प्रसन्नतापूर्वक कहा - दक्ष अजमुख हो जाएं , भग मित्र के नेत्रों से अपना यज्ञभाग देखें, पूषा यजमान के दांतों से पिसा अन्न भक्षण करे, देवों के अंग - प्रत्यंग स्वस्थ हो जाएं, भृगु जी को बकरे की सी दाढी - मूंछ हो जाए, जिनकी भुजाएं टूट गई हैं, वे अश्विनी कुमारों की भुजाओं से तथा जिनके हाथ नष्ट हो गए हैं, वे पूषा के हाथों से काम करे । इसके साथ ही शिव ने दक्ष की यज्ञशाला में पहुंचकर दक्ष के धड से यज्ञपशु का सिर जोड दिया, जिससे दक्ष तत्काल सोकर उठे हुए की भांति जी उठे । शिव पर दृष्टि पडते ही उनके हृदय की कालिमा नष्ट हो गई और वह शरत्कालीन सरोवर के समान स्वच्छ हो गया । शिव की स्तुति करके दक्ष ने जैसे ही विशुद्ध चित्त से हरि का ध्यान किया, वैसे ही भगवान् सहसा वहां प्रकट हो गए । सभी ने श्रीहरि की स्तुति की । श्रीहरि ने दक्ष के प्रति अपनी सर्वस्वरूपता का उपदेश किया और दक्ष ने भी श्रीहरि तथा अन्य सभी देवताओं का यज्ञ से यजन कर यज्ञ का उपसंहार किया । कथा की प्रतीकात्मकता प्रत्येक मनुष्य आत्मा और देह का एक सुन्दर जोड है । दोनों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है क्योंकि आत्मा देह के माध्यम से प्रकट होता है और देह आत्मा के आश्रय से क्रियाशील होता है । आत्मा रथी है तो देह रथ । जीवन - यज्ञ में दक्षता का समावेश तभी होता है जब दोनों को उनके यथायोग्य स्थान पर रखकर चला जाए । विपर्यय होने पर दक्षता का आना असम्भव है । तीसरे भाग में हम देख भी चुके हैं कि आत्मा रूपी रथी को अस्वीकार करके तथा देह को रथी बनाकर दक्षता का यज्ञ किस प्रकार ध्वस्त हुआ । दक्षता के यज्ञ की पूर्ति हेतु इसी बिन्दु को यहां प्रतीक भाषा में प्रस्तुत किया गया है । १. कथा में कहा गया है कि यज्ञ का ध्वंस होने पर डरे हुए देवता तथा सभासद आदि ब्रह्मा जी के पास पहुंचे और ब्रह्मा जी सबको साथ लेकर उत्तर दिशा में स्थित महादेव जी के पास पहुंचे । देवता और सभासद मनुष्य शरीर में कार्यरत वे विभिन्न शक्तियां हैं जो शरीर की व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाती हैं । देहाभिमान के नकारात्मक विचार से मनुष्य का मन अशान्त और अस्थिर रहता है और मन के अशान्त, अस्थिर होने से शरीर की समग्र व्यवस्था भी अस्त - व्यस्त हो जाती है । शरीर की व्यवस्था का अस्त - व्यस्त होना ही मानों देवों, सभासदों का भयभीत होना है । ब्रह्मा हमारे बृंहणशील अर्थात् वर्धनशील मनश्चैतन्य का प्रतीक है । दक्षता का यज्ञ सम्पन्न करने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य सर्वप्रथम अपनी अस्त - व्यस्त हुई शक्तियों अर्थात् अनेकानेक लक्ष्यों में बिखरी हुई शक्तियों को इकट्ठा करे । तत्पश्चात् वर्धनशील मन से संयुक्त होकर मन में इस संकल्प को दृढतापूर्वक धारण करे कि 'मैं शुद्ध शान्तस्वरूप आत्मा हूं' । मन का इस संकल्प में स्थित होना ही देवताओं और ब्रह्मा का महादेव के पास पहुंचना है । महादेव का निवास उत्तर दिशा में कहा गया है । उत्तर शब्द उच्चता का, ऊर्ध्व स्थिति का द्योतक है । जन्मों - जन्मों से हमारा मन इस संकल्प का अभ्यस्त हो गया है कि 'मैं देहरूप हूं ' । इस असत् संकल्प को प्रयत्नपूर्वक छोकर 'मैं शान्त स्वरूप आत्मा हूं' इस नूतन, सत्य संकल्प को धारण करना और उसमें स्थित होना ही ऊर्ध्व में, उत्तर में स्थित होना है । २. कथा में कहा गया है कि ब्रह्मा ने महादेव से यज्ञ की पूर्णता हेतु प्रार्थना की । महादेव ने यज्ञ की पूर्णता का आश्वासन दिया । महादेव ने कहा कि दक्ष अजमुख हो जाएं, भग मित्र के नेत्रों से देखें, पूषा यजमान के दांतों से भक्षण करे तथा भृगु को बकरे की सी दाढी मूंछ प्राप्त हो । यह कथन इंगित करता है कि जब हमारा वर्धनशील अर्थात् उन्नति की ओर बढने वाला मन (ब्रह्मा) आत्म - तत्त्व के प्रति लक्ष्य पूर्ति हेतु प्रार्थना के भाव से युक्त होता है, तब आत्म तत्त्व अर्थात् अस्तित्व से तदनुकूल प्रतिक्रिया प्राप्त होती है (समान समान को आकर्षित करता है - के नियम के अनुसार, जिसकी विवेचना हम पूर्व भाग में कर चुके हैं । आत्मस्वरूप में स्थित होने पर व्यक्तित्व पूर्णरूपेण रूपान्तरित हो जाता है । दक्ष के अजमुख होने का अर्थ है - मन का आत्मदृष्टि से युक्त होना । देहस्वरूप में स्थित होने पर जो मन 'बस्तमुख' अर्थात् अहंकार केन्द्रित दृष्टि से युक्त रहता है, वही मन रूपान्तरित होकर परमात्म केन्द्रित(अजमुख) हो जाता है । भग द्वारा मित्र के नेत्रों से देखने का अर्थ है - मनुष्य की भाग या भाग्य के प्रति मित्रवत् दृष्टि अर्थात् प्रत्येक शुभ - अशुभ भाव, विचार या घटना के प्रति स्नेहपूर्ण व्यवहार तथा स्वीकृति । पूषा द्वारा यजमान के दांतों से भक्षण करने का अर्थ है - आत्म - स्वरूप में स्थित होने पर शरीर को पोषित करने वाली पूषा शक्ति का स्वतः सुचारु रूप से कार्य करना । भृगु को बकरे सी दाढी - मूंछ प्राप्त होने का अर्थ है - देहाभिमान की स्थिति में अन्त:स्थित जो ज्ञान शोभनीय और सम्माननीय नहीं होता, वही ज्ञान आत्म स्वरूप में स्थित होने पर शोभाशील और सम्मानयुक्त हो जाता है । ३. कथा में कहा गया है कि शिव ने दक्ष की यज्ञशाला में पहुंचकर दक्ष के धड से यज्ञपशु का सिर जोड दिया, जिससे दक्ष तत्काल सोकर उठे हुए की भांति जी उठे । पशु का अर्थ है - पाश अर्थात् बन्धन से युक्त और यज्ञपशु का अर्थ है - बन्धन युक्त शक्ति का बन्धन से मुक्त होना । जब तक मनुष्य 'मैं देह स्वरूप हूं' इस प्रकार के देहाभिमान से युक्त रहता है, तब तक सत् असत् को पहचानने वाली उसकी विवेक शक्ति प्रसुप्त अवस्था में रहती है, इसलिए वह देह को सत् स्वरूप और आत्मा को असत्स्वरूप समझता हुआ व्यवहार करता है । परन्तु जैसे ही उसे अपनी आत्मस्वरूपता का बोध होता है, वैसे ही उसकी सत् असत् को पहचानने वाली विवेक शक्ति जाग्रत हो जाती है । आत्मस्वरूप में स्थिति से विवेकशक्ति का जाग्रत होना ही महादेव द्वारा दक्ष के धड से यज्ञपशु का सिर जोडना है । आत्मस्वरूप में अजाग्रति दक्ष रूप मन की प्रसुप्त अथवा मृत अवस्था है । इसके विपरीत, आत्मस्वरूप में जाग्रति ही दक्ष रूप मन की जाग्रत अथवा जीवित अवस्था है, जिसे कथा में दक्ष का मृत अवस्था से जी उठना कहा गया है । ४. कथा में कहा गया है कि शिव पर दृष्टि पडते ही दक्ष की हृदय कालिमा नष्ट हो गई, उन्हें श्रीहरि के दर्शन हुए और श्रीहरि ने उन्हें अपनी सर्वस्वरूपता का उपदेश दिया । दक्ष का यज्ञ निर्विघ्न पूर्ण हुआ । प्रस्तुत कथन का अभिप्राय यही है कि आत्मस्वरूप की धारणा से आत्मस्वरूप में स्थिति होने पर मन के समस्त मल समाप्त हो जाते हैं और मन की इस शुद्ध स्थिति में ही मनुष्य को जगत् की परमात्मस्वरूपता का ज्ञान होता है । आत्मस्वरूप के ज्ञान द्वार जगत् के रूप में विद्यमान परमात्मा के दर्शन होना ही दक्षता के यज्ञ की पूर्णता है । आत्मा - परमात्मा के योग से प्राप्त यह दक्षता ही मनुष्य को सफलता की नई ऊंचाइयां प्रदान करती है ।
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