पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (From Tunnavaaya to Daaruka ) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar)
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दारु टिप्पणी : वैदिक साहित्य के सायण भाष्य में दारु की व्याख्या सार्वत्रिक रूप से परशु द्वारा छेदन से रहित काष्ठ के रूप में, स्वयं-पतित काष्ठ के रूप में की गई है। शतपथ ब्राह्मण 6.6.3.5 आदि द्वारा भी इसकी पुष्टि होती है। दारु शब्द की निरुक्ति दॄ – विदारणे धातु के आधार पर की गई है, जबकि पुराणों में द्यतति व्यथयति संसारदुःखानि के आधार पर। इन सभी निरुक्तियों की व्याख्या शतपथ ब्राह्मण 3.8.3.15 व 3.8.4.5 के इन कथनों से होती है कि जब देह से प्राण निकल जाते हैं तो वह दारु की भांति अनर्थ्य होकर शयन करता है। परशु शब्द की टिप्पणी में यह स्पष्ट किया गया है कि परशु पापों के छेदन हेतु वरुण की, प्रयास की स्थिति है जबकि अपरशु मित्र की, नैसर्गिक, समाज द्वारा प्रदत्त स्थिति है। पुराण कथाओं में राजा इन्द्रद्युम्न द्वारा अश्वमेध के अन्त में चार शाखाओं वाला एक वृक्ष प्रकट होता है और राजा इन्द्रद्युम्न इन शाखाओं का परशु द्वारा छेदन करवाता है और उनसे शिल्पी विश्वकर्मा चार मूर्तियों का निर्माण करता है। इस आख्यान में परशु द्वारा छेदन से प्राप्त दारु उपरोक्त वैदिक कथनों के विपरीत है जिसकी व्याख्या अपेक्षित है। ऋग्वेद 10.155.3 के अनुसार दारु प्लव/तैरकर अपूरुष को सिन्धु के पार लगा देती है। वैदिक साहित्य में इससे आगे दारु की प्रत्यक्ष व्याख्या नहीं मिलती। पुराणों ने इस कमी को पूरा किया है। प्राणों से रहित दारु/काष्ठ का क्या उपयोग किया जा सकता है, इस संदर्भ में कहा गया है कि वर्णमाला के ड अक्षर का अधिपति दारुकेश है। अक्षमालिकोपनिषद के अनुसार ड अक्षर की प्रकृति गरुडात्मक है। पुराणों में जहां-जहां भी विष्णु या कृष्ण युद्ध करते समय रथ से रहित होते हैं और उन्हें युद्ध करने के लिए रथ की आवश्यकता पडती है तो तुरन्त दारुक सारथि रथ लेकर उपस्थित हो जाता है। इन कथनों से यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यदि प्राण जल वाले सिन्धु को पार करना है तो पार करने वाली दारु/नौका ऐसी होनी चाहिए जिस पर प्राण रूपी जल का श्लेष/चिपकना न हो। इस कथन का सार्वत्रिक रूप से उपयोग किया जा सकता है। किसी भी प्रकार के सिन्धु के जल में, प्राण में, आनन्द में हमारी आसक्ति होगी तो उस सिन्धु को हम पार नहीं कर पाएंगे। दारु बन कर ही पार किया जा सकता है। संदर्भ *वि॒जेह॑मानः पर॒शुर्न जि॒ह्वां द्र॒विर्न द्रा॑वयति॒ दारु॒ धक्ष॑त् – ऋ. ६.३.४ अग्नि परशु के समान काष्ठ पर अपनी जीभ चलाते हैं एवं सुनार के समान सोने को गला देते हैं। *इन्द्र॑स्येव॒ प्र त॒वस॑स्कृ॒तानि॒ वन्दे॑ दा॒रुं वन्द॑मानो विवक्मि – ऋ. ७.६.१ मैं इन्द्र के समान बलवान, पुरों के भेत्ता(दारुं) वैश्वानर अग्नि के कृत्यों की वन्दना करता हूं तथा वन्दना के पश्चात् कहता हूं। *यद॑ग्ने॒ कानि॒ कानि॑ चि॒दा ते॒ दारू॑णि द॒ध्मसि॑। ता जु॑षस्व यविष्ठ्य॥ - ऋ. ८.१०२.२०, तु. शौ.अ. १९.६४.३ हे यविष्ठ्य(यव की भांति जोडने वालों में सर्वश्रेष्ठ) अग्नि, तुम्हारे अन्दर मैं जो भी परशु-छेदन रहित काष्ठ रखता हूं, उनका सेवन करो। *शु॒नम॑ष्ट्रा॒व्य॑चरत् कप॒र्दी व॑र॒त्रायां॒ दार्वा॒नह्य॑मानः। नृ॒म्णानि॑ कृ॒ण्वन् ब॒हवे॒ जना॑य॒ गाः प॑स्पशा॒नस्तवि॑षीरधत्त॥ – ऋ. १०.१०२.८ पाश/रस्सी(वरत्रा) के द्वारा काष्ठ/दारु को लपेटते हुए चाबुक(अष्ट्रावि) धारण करने वाला कपर्दी चुपचाप विचरण करता है। अथर्ववेद 11.3.10 के अनुसार गुदा वरत्राः हैं(आन्त्राणि जत्रवो गुदा वरत्राः) और शतपथ ब्राह्मण 3.8.4.5 के अनुसार प्राण गुदा हैं। कपर्दी आनन्द की किसी अनुभूति से उत्पन्न कम्पन, सिहरन की स्थिति हो सकती है। इस कम्पन के कारण दारु/काष्ठ का संयोग प्राण रूपी वरत्रों/रस्सियों से हो जाता है। *गाम॒ङ्गैष आ ह्व॑यति॒ दार्व॒ङ्गैषो अपा॑वधीत्। वस॑न्नरण्या॒न्यां सा॒यमक्रु॑क्ष॒दिति॑ मन्यते॥ – ऋ. १०.१४६.४ *अ॒दो यद्दारु॒ प्लव॑ते॒ सिन्धोः॑ पा॒रे अ॑पूरु॒षम्। तदा र॑भस्व दुर्हणो॒ तेन॑ गच्छ परस्त॒रम्॥ - ऋ. १०.१५५.३ *यद् दारुणि बध्यसे यच्च रज्ज्वा यद् भूम्यां बध्यसे यच्च वाचा। - शौ.अ. ६.१२३.२ *उदप्लुतमिव दार्वहीनामरसं विषं वारुग्रम्॥ - शौ.अ. १०.४.३ *यद॑ग्ने॒ यानि॒ कानि॑ चि॒दा ते॒ दारू॑णि द॒ध्मसि॑। ता जु॑षस्व यविष्ठ्य॥ - ऋ. ८.१०२.२०, शौ.अ. १९.६४.३ *कार्ष्णायसेन दारु (संदध्यात्) – जै.उ.ब्रा. ३.४.३.३ *दारु च चर्म च श्लेष्मणा (संदध्यात्) – जै.उ.ब्रा. ३.४.३.३ *अग्निधारणम् : यद॑ग्ने॒ यानि॒ कानि॒ चाऽऽ ते॒ दारू॑णि द॒ध्मसि॑। तद॑स्तु॒ तुभ्य॒मिद् घृ॒तं तज्जु॑षस्व यविष्ठ्य॥ - तै.सं. ४.१.१०.१ दारु - कुठार छेदन रहित काष्ठ, स्वयं पतित – सायण भाष्य *न ह स्म वै पुराऽग्निरपरशुवृक्णं दहति तदस्मै प्रयोग एवर्षिरस्वदयद्यदग्ने यानि कानि चेति समिधमा दधात्यपरशुवृक्णमेवास्मै स्वदयति – तै.सं. ५.१.१०.१ *यस्मा॒द्दारो॑रु॒द्वाये॑त्। तस्या॒रणी॑ कुर्यात्। क्रु॒मु॒कमपि॑ कुर्यात्। ए॒षा वा अ॒ग्नेः प्रि॒या त॒नूः। यत्क्रु॑मु॒कः। - तै.ब्रा. १.४.७.३ गार्हपत्य खर पर अग्नि जिस दारु से विलीन हुई हो, उसकी अरणी बनाये। क्रुमुक(तक्षण से निर्मित अतिलघु टुकडे) भी बनाए। *गाम॒ङ्गैष॒ आह्व॑यति। दार्व॒ङ्गैष॒ उपा॑वधीत्। वस॑न्नरण्या॒न्यां सा॒यम्। अक्रु॑क्ष॒दिति॑ मन्यते॥ - तै.ब्रा. २.५.५.७ गोपालक प्रिय शब्द (अङ्ग) द्वारा सायंकाल अरण्य में गायों का आह्वान करता है। शिल्पी अपनी प्रिय काष्ठ का छेदन करता है। - - - *दर्शपूर्णमासेष्टिः – एक॑विंशतिमिध्मदा॒रूणि॑ भवन्ति। ए॒क॒विं॒शो वै पुरु॑षः। पुरु॑ष॒स्याऽऽप्त्यै। पञ्च॑दशेध्मदा॒रूण्य॒भ्याद॑धाति। पञ्च॑दश॒ वा अ॑र्धमा॒सस्य॒ रात्र॑यः। अ॒र्ध॒मा॒स॒शः संवत्स॒र आ॑प्यते। - तै.ब्रा. ३.३.७.१ *यद्य् उ तन् न यद् अस्माल् लोकात् प्रेयाद् अथैनम् आददीरन्। नानास्थाल्योर् अग्नी ओप्य हरेयुः। अन्वाहार्यपचनाद् उल्मुकम् आददीरन् यज्ञपात्राणि सर्पिर् अपो दारूण्य् अनुस्तरणीं क्षुरं नखनिकृन्तनम्। - जै.ब्रा. १.४६ *अग्निहोत्रम् : अथो खल्व् आहुर् यत् पूर्वस्याम् आहुतौ हुतायाम् अङ्गारा अनुगच्छेयुः क्वोत्तरां जुहुयात् इति। य एव तत्र शकलो ऽन्तिकस् स्यात् तम् अध्यस्यन् जुहुयात्। दारौदारौ ह्य् अग्निः। स यदि तस्यां न तिष्ठेद् धिरण्यम् अभिजुहुयात्। अग्नेर् वा एतद् रेतो यद् धिरण्यम्। - जै.ब्रा. १.५६ *तां (कामदुघां) एतां वक्रेण दारुणान्विच्छन्ति लांगलेन – जै.ब्रा. २.८४ *तद्यथा ह वै दारुणः श्लेष्मसंश्लेषणं स्यात्परिचर्मण्यं वैवमेवैता व्याहृतयः (भूऱ्भुवःस्वः) त्रय्यै विद्यायै(ऋक्, यजु, साम) संश्लेषण्यः । - शां.ब्रा. ६.१२ *तं(प्रस्तरं) अङ्गुलिभिरेव योयुप्येरन् – न काष्ठैः। दारुभिर्वा इतरं शवं व्यृषन्ति। नेत्तथा करवाम् – यथेतरं शवमिति। तस्मादङ्गुलिभिरेव योयुप्येरन् – न काष्ठैः। यदा होता सूक्तवाकमाह। - मा.श.ब्रा. १.८.३.१८ *ते(असुराः) होचुः – अथैनं वयं न्वेव धास्यामहे ‘अत्र तृणानि दह’ ‘अत्र दारूणि दह’ ‘अत्रौदनं पच’ ‘अत्र मांसं पच’ इति। स यं तमसुरा न्यदधत, तेनातेन मनुष्या भुञ्जते। - मा.श.ब्रा. २.२.२.१३ *अग्नेः पुनराधानम् : तं वै दर्भैरुद्धरति। दारुभिर्वै पूर्वमुद्धरति। दारुभिः पूर्वम्, दारुभिरपरम्; जामि कुर्यात्, समदं कुर्यात्, आपो दर्भाः, आपो वर्षाः, ऋतून् प्राविशत्। अद्भिरेवैनमेतदद्भ्यो निर्मिमीते। - मा.श.ब्रा. २.२.३.११ *स हृदयस्यैवाग्रेऽवद्यति। - - -प्राणो वै हृदयम्। - - -प्राणो वै पशुः। - - - -- अथ यदस्मात् प्राणोऽपक्रामति – दार्वेव तर्हि भूतोऽनर्थ्यः शेते। - मा.श.ब्रा. ३.८.३.१५ *स ह त्वेव पशुमालभेत – य एनं मेधमुपनयेत्। - - - प्राणो वै गुदः। - - - -अथ यदाऽस्मात् प्राणोऽपक्रामति – दार्वेव तर्हि भूतोऽनर्थ्यः शेते। - मा.श.ब्रा. ३.८.४.५ *अभिषेकोत्तरकर्माणि : सोमाय वनस्पतये स्वाहा इति। द्वयानि वै वानस्पत्यानि चक्राणि – रथ्यानि च आनसानि च। - - - - -दारूणि वै वानस्पत्यानि रथस्य। दारूण्येवैतेन प्रीणाति। क्षत्रं वै सोमः। - मा.श.ब्रा. ५.४.३.१६ *अथापरशुवृक्णमादधाति। - - - -। एतद्वेकमन्नं यदपरशुवृक्णम्। तेनैननमेतत्प्रीणाति। “यदग्ने कानि कानि चिदा ते दारूणि दध्मसि। सर्वं तदस्तु ते घृतम्, तज्जुषस्व यविष्ठ्य इति। - - -तद् यत् किञ्चापरशुवृक्णम्। तदस्माऽएतत्स्वदयति। - मा.श.ब्रा. ६.६.३.५ *तदाहुः – यत् पूर्वस्यामाहुत्यां हुतायाम्। अथाग्निरनुगच्छेत्। किं तत्र कर्म। का प्रायश्चित्तिरिति। यं प्रतिवेशं शकलं विंदेत्। तमभ्यस्याभिजुहुयात्। “दारौ दारावग्निः” इति वदन्। दारौ दारौ ह्येवाग्निम्। - मा.श.ब्रा. १२.४.३.१ *दारूद्भवं निर्ऋतिना यमेन सुपूज्यमासीन्मारकतं च रुद्रैः। - सिद्धान्तशिखोपनिषद २४ *तद्यथा लवणेन सुवर्णं संदध्यात् - - -- - सीसेन लोहं लोहेन दारु दारु चर्मणा। - छान्दोग्योपनिषद ४.१७.७ *अस्थीन्यन्यतरतो दारूणि मज्जा मज्जोपमा कृता। - बृहदारण्यकोपनिषद ३.९.२८ |