Story of
Daksha
Puraanic literature
states that all the creatures were produced by Daksha Prajaapati. He performs a
sacrifice in which he invites all the gods except lord Shiva. He despises Shiva
for some reasons. Daksha is also the father of Sati, the consort of Shiva. When
Daksha insults Shiva, Sati burns herself in sacrificial fire. Subsequently,
Shiva destroys Daksha’s sacrifice. Daksha is killed and he is revived, but now
he has the head of a goat instead of the earlier ones of 6 Krittikaas. Sati also
takes rebirth in the form of daughter of Himaalaya.
Daksha is the power which makes one efficient. Daksha appears in Rigveda
1.59.4 etc. In veda, Daksha gives birth to Aditi and Aditi gives birth to Daksha.
Aditi is the integral consciousness( on the other hand, Diti is the divided
consciousness). When Aditi, the integral consciousness descends in mortal
creature, then the creature becomes efficient. On the other hand, when a
creature himself becomes efficient, then only the power of god, Aditi will
descend in him. Hence, in Vedas, Daksha is the son as well as father of Aditi.
If the yagna of creature emanates from selfishness, Ahamkaara, if the creature
disrespect the pure form of Aatman – Shiva, then his yagna will be destroyed.
Then Aditi, or in other words, Sati will also be destroyed. When the yagna is
associated with Shiva, then Daksha get the head of a goat, Aja, the God who does
not take birth. Only when the yagna of selfishness is destroyed then only Sati,
who was of black color/Kaali, takes rebirth in the form of Gauri, of white
color, the daughter of Himavaana. As the daughter of Daksha, she doubts
the power of God( She tries to examine Raama by approaching near him in
the guise of Sitaa). As the daughter of Himvaana, she is Umaa, the power of
Omkaara.
-
Fatah Singh
In puraanic legends,
Daksha marries one of her daughter with lord Shiva, but he is annoyed that Shiva
does not respect him. He hates him also, as his living habits are not clean. He
lives in a cremation ground, etc. Ultimately they curse each other. The ritual of Daksha is destroyed, his head is smashed and thrown in ritual fire. He gets a
head of a he - goat. Daksha means efficiency. What is the way out to achieve 100
percent efficiency? Second law of thermodynamics forbids achieving 100 percent
efficiency of an engine in one cycle. Some loss of work will take place in the
form of heat etc. which can not be reconverted into useful work. But vedic
literature contemplates a situation where 100 percent efficiency is possible.
This is possible when mind, body and praana are in perfect synchronization. Then
a work will be performed as soon as it comes in mind. This state is also
achieved in love, where the lover immediately knows the state of loved one. But
vedic literature is quite clear in stating that friendship has to precede the
state of love. Enmity has to vanish at all levels. In real world, the objects of
world are revolting against us. The reason is - their consciousness is inferior
to a human being. That is why the food consumed creates trouble inside. The
state of love can be explained in terms of modern science by the existence of 2
quantas of a photon which can experience simultaneously. While puraanic
literature talks of lord Shiva and Daksha, vedic literature talks of Mitra and
Varuna. One vedic statement clarifies that Mitra is actually Shiva.
Comments on Basta/he -
goat
First published : 1992 AD; revised :
21-9-2008 AD( Aashwin krishna saptamee, Vikrama samvat 2065)
दक्ष ( ऋग्वेद १.५९.४ आदि )
टिप्पणी : दक्ष वह बल है जो मनुष्य को दक्षता प्रदान करे । पुराणों में दक्ष
प्रजाओं की उत्पत्ति करने वाला प्रजापति है । दक्ष एक यज्ञ करता है जिसमें वह शिव
के अतिरिक्त सब देवताओं को आमन्त्रित करता है । शिव का अपमान होने से दक्ष की
पुत्री और शिव की पत्नी सती यज्ञ में जल कर भस्म हो जाती है । शिव दक्ष का यज्ञ
ध्वंस कर देते हैं । उसका ६ कृत्तिकाओं वाला सिर काट कर उस पर बकरे/अज का सिर जोड
कर दक्ष को पुनः जीवित करते हैं । सती का हिमालय की पुत्री गौरी के रूप में पुनः
जन्म होता है ।
वेदों में दक्ष से अदिति उत्पन्न होती है और अदिति से दक्ष उत्पन्न होता है । अदिति
अखण्ड बुद्धि है ( दिति खण्डित बुद्धि है ) । अदिति रूपी आत्मा की शक्ति जीवात्मा
में आए तो जीवात्मा में दक्षता आएगी और दूसरी ओर, जीवात्मा पूर्णतः दक्ष हो तभी
परमात्मा की अदिति शक्ति उसे प्राप्त होगी । अतः दक्ष अदिति का पुत्र भी है और पिता
भी । यदि जीवात्मा रूपी दक्ष का यज्ञ अहंकार युक्त यज्ञ होगा, जीवात्मा/दक्ष आत्मा
के शुद्ध रूप, शिव का निरादर करेगा तो उसका यज्ञ ध्वस्त हो जाएगा । तब अदिति या सती
भी नष्ट हो जाएगी । यज्ञ को शिव से जोडने पर दक्ष को कृतिकाओं के सिरों के स्थान पर
अज - अजन्मा परमेश्वर का सिर प्राप्त होता है । अहंकार का यज्ञ नष्ट होने पर ही
दक्ष - पुत्री सती, जो परमात्मा की शक्ति पर संदेह करती है ( सीता का रूप धारण करके
राम के सम्मुख जाती है ), का हिमवान की पुत्री गौरी के रूप में जन्म होता है । दक्ष
- पुत्री सती के रूप में वह काली थी, अब हिमावान् व्यक्तित्व की पुत्री के रूप में
वह गौरी है, उमा है, ओंकार की शक्ति है । - फतहसिंह
दक्ष
टिप्पणी : पूरा मनुष्य समाज दक्षता प्राप्ति की ओर अग्रसर हो रहा है । प्रत्येक
व्यवसाय में दक्षता प्राप्ति की आवश्यकता होती है । गुरु शिष्य को दक्षता प्रदान
करता है । वैदिक भाषा में इसे दीक्षा प्रदान करना कहते हैं । प्रत्येक वैदिक कृत्य
में पहले गुरु से या ब्राह्मणों से दीक्षा ग्रहण की जाती है, वे गुरु जिन्होंने उस
मार्ग पर चलकर दक्षता प्राप्त कर ली है । पुराणों की दक्ष प्रजापति की कथा में
उल्लेख आता है कि दक्ष प्रजापति शिव पर दोषारोपण करते हैं कि यह मेरा शिष्य होकर भी
मेरा आदर नहीं करता । दक्ष द्वारा शिव को अपना शिष्य बताना महत्त्वपूर्ण है । दक्ष
द्वारा शिव को अपनी कन्या सत्या प्रदान की गई है । गुरु अपने शिष्य को दीक्षा,
दक्षता प्रदान करता है । इस प्रकार सत्या भी दीक्षा या दक्षता के समकक्ष होनी चाहिए
। यह कहा जा सकता है कि दक्ष द्वारा प्रकृति को ऋत या सत्य के स्तर तक रूपान्तरित
कर दिया गया है, उस स्तर तक जहां ऋत और सत्य में कोई भेद नहीं रह गया है (
तैत्तिरीय ब्राह्मण २.४.६.४) । लेकिन शिव फिर भी दक्ष को कोई आदर नहीं देते हैं ।
दक्ष का यह भी आरोप है कि शिव श्मशान वासी हैं, कपाली हैं, अशुचि हैं आदि । इस
पहेली का रहस्य हमें वैदिक साहित्य में प्राप्त होता है । ऋग्वेद १०.१३७.२ का कथन
है :
द्वाविमौ वातौ वात आ सिन्धोरा परावतः ।
दक्षं ते अन्य आ वातु परान्यो वातु यद्रपः ।।
यह ऋचा अथर्ववेद ४.१३.२, तैत्तिरीय ब्राह्मण २.४.१.७ तथा तैत्तिरीय आरण्यक ४.४२.१
में भी प्रकट हुई है । इस ऋचा में कहा गया है कि दो वात प्रवाहित होती हैं - एक
सिन्धु से और एक परावत से । एक द्वारा दक्षता प्राप्त होती है, एक पाप का नाश करती
है । भौतिक विज्ञान में तापगतिकी का द्वितीय नियम है जिसके अनुसार इस संसार की
अव्यवस्था की माप में, एण्ट्राvपी में वृद्धि हो रही है । इस ब्रह्माण्ड में ऐसी
कोई प्रक्रिया स्वाभाविक रूप में घटित नहीं हो सकती जिससे कि एण्ट्रांपी में कमी
होती हो । इसी नियम के अन्तर्गत यह परिणाम भी निकलता है कि एक चक्र में कार्य कर
रहा कोई भी यन्त्र १०० प्रतिशत दक्ष नहीं बनाया जा सकता । तात्पर्य यह है कि ऐसा
कोई यन्त्र नहीं बनाया जा सकता कि एक प्रकार की ऊर्जा को दूसरे प्रकार की ऊर्जा में
१०० प्रतिशत रूपान्तरित कर दे । उदाहरण के लिए, यदि विद्युतीय ऊर्जा से कोई पंखा चल
रहा है जो विद्युतीय ऊर्जा को यान्त्रिक ऊर्जा में रूपान्तरित कर रहा है । लेकिन
साथ ही साथ, पंखे में ऊष्मा भी उत्पन्न हो रही है, पंखा गर्म हो रहा है । अतः जो
ऊर्जा यान्त्रिक ऊर्जा में बदली जा सकती थी, वह ऊष्मा के रूप में नष्ट हो रही है ।
वैदिक भाषा में यही रपः या पाप है । यह कथन इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि भौतिक विज्ञान
के जिस सिद्धान्त को हम आधुनिक प्रयत्नों से स्थापित कर पाए हैं, वह सिद्धान्त वेद
जैसे प्राचीन ग्रन्थ में भी उपलब्ध है । तैत्तिरीय आरण्यक ४.११.८ में कहा गया है -
सस्निमविन्दच्चरणे नदीनाम् । अपावृणोद्दुरो अश्मव्रजानाम् ।।
प्राऽऽसां गन्धर्वो अमृतानि वोचत् । इन्द्रो दक्षं परिजानादहीनम् ।।
इस यजु के सायण भाष्य में अहीनम् की व्याख्या इस प्रकार की गई है कि इन्द्र उस दक्ष
को जाने जो हीनता से रहित हो । इस प्रकार वैदिक साहित्य में १०० प्रतिशत दक्षता का
भी प्रावधान है । यही यजु ऋग्वेद १०.१३९.६ में भी प्रकट हुई है लेकिन वहां
'परिजानदहीनम्' के स्थान पर 'परिजानादहीनाम्' शब्द प्रकट हुआ है । सायणाचार्य
द्वारा इसका भाष्य किया गया है कि इन्द्र अहियों के, वृत्रों के दक्ष को जाने । यह
१०० प्रतिशत दक्षता किन परिस्थितियों में प्राप्त की जा सकती है, इसके बारे में
अनुमान है कि जब तक कार्य करने में हमारे शरीर की जडता विद्यमान है, तब तक कोई
कार्य १०० प्रतिशत दक्षता से नहीं किया जा सकता । कहा जाता है कि विशुद्धि चक्र में
जाकर जडता समाप्त हो जाती है क्योंकि विशुद्धि चक्र में केवल स्वरों की स्थिति होती
है, व्यंजनों की नहीं । अतः विशुद्धि चक्र की चेतना में पहुंच कर वह स्थिति होनी
चाहिए जहां किसी कार्य को १०० प्रतिशत दक्षता से सम्पन्न किया जा सके । वहां
कल्पवृक्ष की सी स्थिति होनी चाहिए । जैसे ही कोई विचार उत्पन्न हुआ, उसकी तुरन्त
पूर्ति हो जाए । यह ज्ञात नहीं है कि जो योगी जन केवल विचार द्वारा ही सभी भोज्य
पदार्थ तथा अन्य वस्तुएं भी प्रस्तुत कर देते हैं, क्या वह विशुद्धि चक्र की चेतना
में रह कर ही यह कर पाते हैं ? डा. विश्वमोहन तिवारी ने कल्पवृक्ष की स्थिति को १००
प्रतिशत दक्षता को भी पार कर जाने वाली स्थिति बताया है जो असम्भव है और जिस पर आगे
विचार करने की आवश्यकता है । इस संदर्भ में आधुनिक विज्ञान के उन प्रयोगों का
उल्लेख कर देना उचित होगा जिनमें एक प्रकाशीय कण, जिसे फोटोन कहते हैं, को दो
क्वाण्टा के परस्पर युग्मित हो जाने के कारण निर्मित हुआ माना जाता है । यदि एक
क्वाण्टा पर कोई क्रिया की जाएगी, तो दूसरे क्वाण्टा पर भी वह क्रिया अपने आप घटित
हो जाएगी । आजकल सूचना प्रौद्यौगिकी में इस सिद्धान्त के उपयोग की बात चल रही है ।
प्रेम में भी ऐसी ही स्थिति होती है । भागवत पुराण ११.२.४६ का कथन है -
ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च ।
प्रेम मैत्री कृपोपेक्षा यः करोति स मध्यम: ।।
अर्थात् जो ईश्वर, उनके आधीन (भक्तों), बालों या जिनकी चेतना बिखरी हुई है और द्वेष
करने वालों में क्रमशः प्रेम, मैत्री, कृपा और उपेक्षा द्वारा व्यवहार करता है, वह
मध्यम श्रेणी का साधक है । यहां प्रेम से पहले मैत्री शब्द का होना महत्त्वपूर्ण है
क्योंकि ऐसा ही वैदिक साहित्य में भी उल्लेख है । हमारी देह के प्रत्येक स्तर पर
जीवनी शक्ति और मृत्यु शक्ति में संघर्ष चल रहा है । वहां मैत्री नहीं है । एक
उपयोगी कोश को बनाने के लिए जीवनी शक्ति को लाखों कोशों को नष्ट करना पडता है ।
जहां जीवनी शक्ति कमजोर पडी, वह लाखों कोश कैंसर के रूप में प्रकट हो जाते हैं ।
कहा जाता है कि हमारे मुख में जो कफ उत्पन्न होता है, वह उन्हीं शत्रुओं के शरीर का
भाग है । अतः प्रेम से, दक्ष से पहले हमें मित्र की स्थिति प्राप्त करनी होगी जहां
मारने वाली शक्तियां हमारी मित्र बन जाएं । मित्र बनाने का कार्य किसी सीमा तक
हमारे शरीर में भी सम्पन्न हो जाता है । कुछ प्रयत्न हमें अपनी ओर से करना पडेगा कि
कोई ऐसा पदार्थ अपने शरीर में प्रवेश न करने पाए जहां जीवनी शक्ति को उससे संघर्ष
करने की आवश्यकता पडे । उदाहरण के लिए, जितनी विकसित चेतना मनुष्य की है, उतनी
विकसित चेतना अभी तक विश्व में अन्य किसी जड - चेतन प्राणी की नहीं बन पाई है । अतः
कहा जा सकता है कि कोई भी चेतना मनुष्य से मैत्री के योग्य नहीं है । लेकिन फिर भी
मनुष्य को अपने अस्तित्व के लिए वनस्पति जगत पर निर्भर रहना पडता है, भोजन करना
पडता है । जब हम भोजन करते हैं तो निश्चय ही भोजन की चेतना का हमारी अपनी चेतना से
संघर्ष होगा । इस संघर्ष को न्यूनतम बनाने के लिए ही सन्त समाज में सूखी रोटी, सूखी
वस्तुओं के सेवन का प्रचलन है जिससे कि मुख का रस मिलने से भोजन की चेतना का हमारी
चेतना से तादात्म्य स्थापित हो जाए । इतना ही नहीं, विपश्यना योग में कहा जाता है
कि यदि भोजन कर रहे हो तो पूरा ध्यान भोजन में ही केन्द्रित कर दो, अपनी चेतना को
भोजन के साथ एकाकार कर दो । ऐसा न हो कि भोजन के साथ - साथ कोई दूसरा कार्य भी चल
रहा हो । हमारे शरीर में भोजन के पाचन में पित्त का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है ।
पित्त अन्य कार्यों के साथ - साथ भोजन को जीवाणु - रहित भी बनाता है ।
लक्ष्मीनारायण संहिता से संकेत मिलता है कि यदि इस पित्त का भोजन में क्षय रोक दिया
जाए तो यही शरीर को हिरण्यय स्थिति में ले जाता है जो सामान्य जीवन में पीलिया रोग
के रूप में प्रकट होता है । हमारे जीवन में अन्य कौन सी परिस्थितियां हो सकती हैं
जहां मैत्री स्थापित करने की आवश्यकता है, यह अन्वेषणीय है ।
भागवत पुराण के उपरोक्त श्लोक में चार अवस्थाओं - प्रेम,मैत्री, कृपा और उपेक्षा का
उल्लेख है जिनमें प्रेम को १०० प्रतिशत दक्षता के तुल्य माना जा सकता है । द्वेष,
जो उपेक्षा से सम्बद्ध है, को आधुनिक विज्ञान की बेकार हुई ऊर्जा माना जा सकता है ।
साधारण अर्थ में इसे इस प्रकार ले सकते हैं कि जिस ऊर्जा का शोधन नहीं किया जा
सकता, वह द्वेष है । उसकी तो उपेक्षा करनी ही पडेगी । श्लोक की दो अवस्थाएं शेष
रहती हैं - मैत्री और कृपा । बालिशों के ऊपर, बिखरी हुई चेतनाओं के ऊपर कृपा की
आवश्यकता है । इसका अर्थ हुआ कि यह इस प्रकार की ऊर्जा है जिसका प्रयत्न करने पर
उपयोगी ऊर्जा में रूपान्तरण संभव है ।
वैदिक साहित्य में मुख्य रूप से दो प्रकार के कर्मों का उल्लेख आता है - क्रतु और
दक्ष । कहा गया है कि मित्र का यज्ञ क्रतु कहलाता है जबकि वरुण का यज्ञ दक्ष कहलाता
है ( तैत्तिरीय संहिता २.५.२.४) । मित्र अपान है, वरुण प्राण है । शतपथ ब्राह्मण
२.४.४.१ में दाक्षायण यज्ञ का स्वरूप दिया गया है जिसमें दो अर्धमासों का रूप मित्र
और वरुण के आधार पर समझाया गया है । कृष्ण पक्ष, जिसमें चन्द्रमा का ह्रास होता है,
वह मित्र से, अपान से सम्बन्धित है । इस रात्रि(अमावास्या?) में मित्र और वरुण एक
साथ रहते हैं । मित्र वरुण में रेतः का सिंचन करता है जिससे आपूर्यमाण चन्द्रमा का
जन्म होता है । चन्द्रमा का आपूरण दक्षता की प्रक्रिया है जो वरुण द्वारा होती है ।
इस कथन को समझने के लिए अमावास्या के स्वरूप को समझना पडेगा । अमावास्या के दिन
चन्द्रमा का आकाश से लोप इसलिए हो जाता है कि वह पृथिवी पर ओषधियों आदि में समा
जाता है । इसी प्रक्रिया को मन पर घटित कर सकते हैं क्योंकि मन को चन्द्रमा का रूप
कहा जाता है । जब मन बहिर्मुखी न होकर पूर्णतः अन्तर्मुखी हो जाए, जिसका अनुभव कभी
- कभी कोई रोचक कार्य करते समय प्रत्येक व्यक्ति को होता है, उस स्थिति में मित्र
नामक अपान प्राण अपना वीर्य दक्षता प्राप्ति हेतु वरुण में स्थापित कर सकता है ।
तभी दक्षता में वृद्धि हो सकती है । अपान प्राण क्रतु है, शरीर रूपी यज्ञ की सारी
आवश्यकताओं को पूरा करता है । लेकिन जब मन अन्तर्मुखी हो गया तो क्रतु में व्यय
होने वाली सारी शक्ति दक्षता में वृद्धि के लिए उपयोग में आती है । शतपथ ब्राह्मण
४.१.४.१ - १० में मित्रावरुण ग्रह के संदर्भ में कहा गया है कि जो मन से कामना करते
हैं कि मेरा यह हो जाए, मैं यह कर लूं, वह क्रतु है । यह मित्र से सम्बन्धित है ।
इस कामना की पूर्ति वरुण द्वारा होती है । उसे दक्ष कहते हैं । मित्र ब्रह्म है,
ब्राह्मण है जबकि वरुण क्षत्रिय है, करने वाला है । इससे आगे कहा गया है कि ब्रह्म
ही ऋत है, जबकि वरुण आयु है । संवत्सर आयु होता है । संवत्सर ही वरुण है । संवत्सर
का अर्थ होता है जहां वाक्, प्राण और मन परस्पर सहयोगी बन जाएं, उनमें संघर्ष न रहे
। वही स्थिति १०० प्रतिशत दक्षता की स्थिति हो सकती है ।
ऋग्वेद के मन्त्रों में अग्नि, इन्द्र, सोम, वरुण आदि देवताओं के साथ दक्षता का
उल्लेख आता है । हमें विचार करना पडेगा कि प्रत्येक देवता की दक्षता किस प्रकार की
है । अग्नि की दक्षता यह हो सकती है कि वह शरीर के कार्यों को सम्पन्न करने के
पश्चात् देवों को हवि कितनी दक्षता से पहुंचा सकती है । जल में अग्नि का लोप हो
जाता है । जल में अग्नि विद्युत रूप में रह सकती है । विद्युत भी दो प्रकार की है ।
एक विद्युत का प्रवाह आयनों या विद्युत का अल्प आवेश रखने वाले सूक्ष्म कणों के
माध्यम से बहुत धीरे - धीरे होता है । यह हमारे शरीर की सामान्य स्थिति है ।
विद्युत प्रवाह की दूसरी स्थिति वह है जिसमें विद्युत का प्रवाह इलेक्ट्रान आदि
विद्युत कणों के माध्यम से होता है । चूंकि इन कणों का भार बहुत कम होता है, अतः यह
बहुत जल्दी गति करते हैं । आधुनिक सूचना प्रौद्यौगिकी में विद्युत का प्रवाह इसी
प्रकार के कणों द्वारा होता है जिससे सूचना का प्रसारण अत्यन्त शीघ्रता से हो जाता
है । अतः जब अग्नि की दक्षता में वृद्धि की बात आती है तो यह तथ्य भी दक्षता
प्राप्ति के संदर्भ में उपयोगी होगा । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.७.९ का कथन है कि
पृथिवी दीक्षा है, अग्नि दीक्षित है । अन्तरिक्ष दीक्षा है, वायु दीक्षित है । द्यौ
दीक्षा है, आदित्य दीक्षित है । दिशाएं दीक्षा हैं, चन्द्रमा दीक्षित है । आपः
दीक्षा हैं, वरुण दीक्षित है । ओषधियां दीक्षा हैं, सोम दीक्षित है । वाक् दीक्षा
है, प्राण दीक्षित हैं । इनमें से प्रत्येक देवता की दीक्षा की व्याख्या भविष्य में
अपेक्षित है । यह रहस्योद्घाटन होने पर ही यह कहा जा सकेगा कि पुराणों में जिस दक्ष
प्रजापति की कथा है, वह कौन सा प्राण तत्त्व है और उसमें क्या - क्या गुण होने
चाहिएं । तैत्तिरीय ब्राह्मण के उपरोक्त संदर्भ में कहा गया है कि 'स्वे दक्षे
दक्षपितेह सीद ' अर्थात् हे दक्षपिता, अपने दक्ष में स्थित हो । पुराणों की दक्ष की
कथा में और वैदिक साहित्य के उपरोक्त संदर्भ में थोडा अन्तर है । वैदिक साहित्य में
तो अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्रमा, आपः आदि के दीक्षित होने का उल्लेख है । पौराणिक
साहित्य में दक्ष द्वारा धर्म, अंगिरा, सोम, कश्यप आदि को अपनी कन्याएं देने का
उल्लेख आता है । सोम को तो दक्ष ने २७ कन्याएं प्रदान की हैं जो सोम की दक्षता में
वृद्धि करती होंगी । इन सभी दक्षताओं का विस्तार अन्वेषणीय है ।
वैदिक साहित्य में दाक्षायण यज्ञ का वर्णन आता है । यह भी कहा गया है कि प्रवर्ग्य
कर्म द्वारा दाक्षायण यज्ञ अग्निष्टोम याग में रूपान्तरित हो जाता है । अग्निष्टोम
याग में यजमान अपने शरीर के अंगों जैसे चक्षु, श्रोत्र आदि को निकाल कर यज्ञ के
ऋत्विजों को दक्षिणा रूप में दे देता है और फिर ऋत्विज उस अंग का शोधन कर एक गाय के
बदले उसे यजमान को वापस लौटा देते हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.११.८.८ का इस पर कथन
है कि ऋत्विज कहते हैं कि - 'दक्षाय त्वा दक्षिणां प्रतिगृह~णामीति । सोऽदक्षत
दक्षिणां प्रतिगृह्य । - - - अप्यनूदेश्यां दक्षिणां प्रतिगृह~णन्ति । उभयेन वयं
दक्षिष्यामह एव दक्षिणां प्रतिगृह्येति । इसका तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि
दक्षिणा ग्रहण करने से दीक्षा प्रदान करने वाले ऋत्विजों को भी दक्षता प्राप्त होती
है । प्रश्न यह है कि अग्निष्टोम याग में जो शरीर के विभिन्न अंग ऋत्विजों को
दक्षिणा में दिए जाते हैं, ऋत्विज उनमें कौन सी दक्षता उत्पन्न करते होंगे ? एक
अनुमान तो यह लगाया जा सकता है कि हमारी सारी इन्द्रियां बाहर को ही खुलती हैं,
अन्दर की ओर नहीं खुलती । ऋत्विज उनमें संशोधन करते होंगे । कर्ण केवल बाहर की आवाज
सुनते हैं, श्रुति का श्रवण नहीं करते । चक्षु सूर्य के प्रकाश से देखते हैं, उनमें
देखने के लिए अपना कोई प्रकाश नहीं है ।
पहले जन्म में दक्ष ब्राह्मण, स्वायम्भुव दक्ष था । फिर दूसरे जन्म में वह शापवश
क्षत्रिय बना - प्रचेताओं व मारिषा से जन्म लेकर प्राचेतस दक्ष कहलाया । तीसरा जन्म
- - - - । तीसरे जन्म में दक्ष को बस्त मुख की प्राप्ति हुई । पौराणिक दक्ष की कथा
के संदर्भ में कथा का रहस्य इस कथन से खुलता है कि दक्ष का सिर अग्नि में होम कर
दिये जाने के पश्चात् उसके कबन्ध से बस्त/बकरे का सिर जोडा गया । वस्त धातु अर्दने
अर्थ में कही गई है । अर्दने धातु हिंसा, प्रार्थना, प्रेरणा आदि अर्थों में
प्रयुक्त होती है । वर्तमान संदर्भ में ऐसा कहा जा सकता है कि वस्त धातु का अर्थ
अभीप्सा, दिव्य आनन्द की अभीप्सा हो सकता है, वैसे ही जैसे चातक विशेष प्रकार के जल
की अभीप्सा करता है ।
दक्ष का अर्थ सोमयाग में दक्षिणाग्नि और आग्नीध्र अग्नि के आधार पर भी समझा जा सकता
है । दक्षिणाग्नि दक्षिण दिशा में होती है जिसका अधिपति नल नैषध है । इस अग्नि का
उपयोग यज्ञीय द्रव्यों को पकाने के लिए होता है । उच्च स्तर पर इस अग्नि का विकास
आग्नीध्र नामक ऋत्विज की अग्नि के रूप में हो जाता है । यह अग्नि उत्तर दिशा में
होती है । इस अग्नि के स्थान पर खडा होकर आग्नीध्र नामक ऋत्विज हाथ में स्फ्य नामक
काष्ठ की तलवार/वज्र लेकर ओ श्रावय/आ श्रावय शब्दों का उच्चारण करता है । फिर अन्य
ऋत्विज अस्तु श्रौषट्, यज, ये यजामहे, वौ३षट् आदि का उच्चारण करते हैं । अतः यह कहा
जा सकता है कि ऐसा संभव है कि वस्त से तात्पर्य वषट् से भी हो । वषट् शब्द के बारे
में कहा गया है कि वौ सूर्य है, षट् छह ऋतुएं हैं । सूर्य का पृथिवी पर आविर्भाव ६
ऋतुओं के रूप में होता है । यह भी कहा गया है कि ओ श्रावय से लेकर वौ३षट् तक के १७
अक्षर वृष्टि के घटित होने के पूर्व की घटनाओं को इंगित करते हैं ।
दक्ष की परिभाषा इस पर निर्भर करती है कि मनुष्य चेतना के किस धरातल पर खडा है ।
इसीलिए पौराणिक साहित्य में दक्ष के तीन जन्मों की कल्पना की गई है - स्वायम्भुव
दक्ष, प्राचेतस दक्ष और बस्त - मुख दक्ष ।
जैमिनीय ब्राह्मण ३.१९२ का कथन है कि प्राण दक्ष हैं, वह प्राण जो जड वस्तु को चेतन
बनाते हैं, उसमें प्राणों का संचार करते हैं ।
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