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In the
4th section of Bhaagavata puraana, there is a story of Daksha related
with the efficiency of mind. Everybody wishes to attain efficiency as it is the
only way to succeed. But the question arises, is it possible to attain
efficiency? If it is possible, what are the characteristics that bring it ? How
these characteristics manifest? Why our minds are not efficient? What is the
obstacle in it’s path? How this obstacle destroys a person’s efforts? What is
the law that can not be violated? What are the means a person can perform to
achieve efficiency? These are the questions that the story of Daksha answers.
The story is totally symbolic and gives a number of facts as below :
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Everybody possesses a potential which brings efficiency but this potential is
silent. |
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This potential manifests only when the mind works on a higher plane. Lower
mind does not have the capability to manifest it. |
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As
soon as the higher mind joins with this potential, many characteristics arise.
These characteristics are sixteen in number. Out of these, thirteen work with
Dharma. Dharma means a universal law called as duty. These thirteen
characteristics produce happiness etc. in life. |
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The
fourteenth one is called ‘Swaahaa’. Swaahaa means to let go the old thought of
being a body. |
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The
fifteenth one is called ‘Swadhaa’. Swadhaa means to adopt a new thought o
being a soul. |
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The
sixteenth one is called ‘Sati’. Sati is our intellect attached to soul. |
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Swaahaa/Swaha purifies our impure consciousness. Swadhaa destroys the seeds of
our previous deeds and the mind holds the new thought of being a soul. Sati
uplifts our intellect jointly with soul as well as mind. All these
characteristics produce efficiency in our personality. |
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But
unfortunately, the power of efficiency develops ego of being the best and as a
result, a person thinks himself a body, not a soul. Now, all activities are
governed by this thought. It should always be remembered that ego is a
powerful negative thought and it produces a long chain of disturbances in
life. |
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This is a universal law that all negative and positive thoughts produced in
mind travel ahead in wave form. A reaction takes place with similar thought
waves and being stronger, they return to the transmitter. According to this
law, negative thought waves of ego, being stronger, return to the transmitter
and start damaging. |
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First, it destroys the mental sphere, then physical and at last the
discrimination power. |
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After suffering a lot from this negativity different mental and bodily powers
take shelter in the developing mind and this mind starts knowing the self.
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Knowing the self is a biggest positive power which not only recovers all the
damages but changes the perspective to see the world. This is what efficiency
is. |
First published : 1-1-2009( Pausha shukla panchami, Vikrama samvat 2065)
दक्ष कथा का रहस्यात्मक विवेचन
- राधा गुप्ता
भाग १: मनुनन्दिनी प्रसूति से दक्ष प्रजापति का विवाह एवं १६ कन्याओं की उत्पत्ति -
एक विवेचन
कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है -
स्वायम्भुव मनु की तीन कन्याएं थी - देवहूति, प्रसूति तथा आकूति । देवहूति का विवाह
कर्दम प्रजापति से, आकूति का विवाह रुचि प्रजापति से तथा प्रसूति का विवाह दक्ष
प्रजापति से हुआ । प्रसूति एवं दक्ष से १६ कन्याएं उत्पन्न हुई । इनमें श्रद्धा,
मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, ह्री
और मूर्त्ति नामक १३ कन्याएं धर्म को प्रदान की गई । इन १३ कन्याओं में श्रद्धा ने
शुभ को, मैत्री ने प्रसाद को, दया ने अभय को, शान्ति ने सुख को, तुष्टि ने मोद को,
पुष्टि ने अहंकार को, क्रिया ने योग को, उन्नति ने दर्प को, बुद्धि ने अर्थ को, मेधा
ने स्मृति को, तितिक्षा ने क्षेम को, ह्री ने विनय को तथा मूर्ति ने नर - नारायण
ऋषियों को जन्म दिया । नर - नारायण ही अर्जुन और कृष्ण के रूप में अवतीर्ण हुए ।
१४वी स्वाहा नामक कन्या अग्निदेव को प्रदान की गई जिससे एक ही अग्नि ४९ रूपों में
प्रादुर्भूत हुई । १५वी स्वधा नामक कन्या पितरों को प्रदान की गई जिससे वयुना और
धारिणी नामक कन्याएं उत्पन्न हुई । तथा १६वी सती नामक कन्या महादेव जी को प्रदान की
गई जिससे कोई पुत्र नहीं हुआ क्योंकि सती ने युवावस्था में ही योग द्वारा देह का
त्याग कर दिया था ।
कथा में निहित रहस्यात्मकता
कथा पूर्णरूपेण प्रतीकात्मक है और इसके माध्यम से निम्नलिखित तथ्यों को प्रकट किया
गया है -
१. 'दक्ष' मनश्चैतन्य अर्थात् जीवात्मा का वह बल है जो व्यक्तित्व को दक्षता(कुशलता)
प्रदान करता है । यह दक्ष नामक बल प्रत्येक मनुष्य की मनश्चेतना में संभावना अथवा
सामर्थ्य (potential) के रूप में विद्यमान है ।
२. सम्भावना के रूप में विद्यमान यह दक्ष नामक बल जब प्रकट होता है, तब व्यक्तित्व
को दक्षता प्रदान करने वाली अनेक विशिष्टताओं को उत्पन्न करता है । ये विशिष्टताएं
हैं - श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा,
तितिक्षा, ह्री, मूर्ति, स्वाहा, स्वधा तथा सती । इन १६ विशिष्टताओं को ही कथा में
दक्ष एवं प्रसूति की १६ कन्याएं कहा गया है । ये विशिष्टताएं तथा इनसे उत्पन्न अन्य
अनेक विशिष्टताएं दक्ष - बल की 'प्रजा' कहलाती हैं । इसलिए दक्ष को कथा में 'प्रजापति'
अर्थात् प्रजाओं का पति कहा गया है । पौराणिक साहित्य में 'पति' शब्द का अर्थ होता
है - लक्ष्य । अतः प्रजापति शब्द का अर्थ हुआ - विशिष्टता रूप प्रजा को उत्पन्न करने
के लक्ष्य से युक्त ।
३. परन्तु प्रत्येक मनुष्य की मनश्चेतना के भीतर संभावना(potential) के रूप में
विद्यमान यह दक्ष नामक बल तब तक प्रकट नहीं होता, जब तक ऊर्ध्वमुखी उच्च मन की
क्रियाशक्ति का इस दक्ष - बल के साथ संयोग नहीं होता अर्थात् उच्च मन के सक्रिय होने
पर ही दक्ष बल प्रकट होता है । उच्च मन की सक्रियता का अर्थ है - जीवन के प्रत्येक
स्तर पर स्वार्थपरक दृष्टिकोण से हटकर परमार्थपरक दृष्टिकोण से कार्य करना । उच्च
मन की इस सक्रियता को ही कथा में स्वायम्भुव मनु की पुत्री 'प्रसूति' कहा गया है ।
पूर्व लेख 'वराह अवतार कथा का रहस्यार्थ' में हम स्पष्ट कर चुके हैं कि स्वायम्भुव
मनु का अर्थ है - ऊर्ध्वमुखी उच्च मन तथा उसकी तीन पुत्रियां - देवहूति, प्रसूति तथा
आकूति क्रमशः ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति तथा भाव या इच्छा शक्ति की प्रतीक हैं । इस
क्रियाशक्ति का मनश्चेतना में विद्यमान 'दक्ष - बल' से संयोग होना ही कथा में
प्रसूति का दक्ष प्रजापति से विवाह होना कहा गया है ।
४. उच्च मन की सक्रियता अर्थात् प्रसूति दक्ष - बल से संयुक्त होकर व्यक्तित्व में
श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा,
तितिक्षा, ह्री(लज्जा) तथा मूर्त्ति( मूर्त्तरूपता) नामक उन १३ विशिष्टताओं को
उत्पन्न करती है जो धर्म से संयुक्त होकर जीवन में शुभ, प्रसाद, अभय, सुख, मोद, योग,
अर्थ, स्मृति, क्षेम, विनय, चेतना की जागरूकता तथा संकल्प का निर्माण करती हैं ।
धर्म का अर्थ है - व्यष्टि और समष्टि जीवन में क्रियाशील वे नियम(laws) जो हमें
धारण करते हैं । पुष्टि और उन्नति नामक विशिष्टताओं से व्यक्तित्व में अहंकार और
दर्प भी उत्पन्न होता है जिनका सुचारु रूप से नियन्त्रण आवश्यक है ।
५. उच्च मन की सक्रियता(प्रसूति) दक्ष - बल से संयुक्त होकर 'स्वाहा' और 'स्वधा'
नामक दो कन्याओं को उत्पन्न करती है । स्वाहा का अर्थ है - स्व+ आ+ हा अर्थात् स्व
को चारों ओर से छोड देना, समर्पित कर देना, तथा स्वधा का अर्थ है - स्व + धा अर्थात्
स्व को धारण करना । स्वाहा शब्द में स्व का अर्थ है- वह व्यक्तित्व जिसे मनुष्य मां
के गर्भ से लेकर आता है अर्थात् 'मैं' देवस्वरूप हूं ' इस विचार से सम्बन्धित भाव,
कर्म आदि तथा स्वधा शब्द में स्व का अर्थ है - वह ज्योvतिर्मय व्यक्तित्व जिसे
मनुष्य पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त करता है अथवा प्राप्त करना चाहता है । उच्च मन की
सक्रियता के दक्ष - बल से संयुक्त होने पर मनुष्य अपने मिथ्या स्वरूप 'मैं देहमात्र
हूं' का सर्वथा त्याग कर देता है, जिसे कथा में स्वाहा नामक कन्या की प्राप्ति होना
कहा गया है और अपने वास्तविक स्वरूप 'मैं आत्म रूप हूं' को धारण कर लेता है जिसे कथा
में स्वधा नामक कन्या की प्राप्ति होना कहा गया है । 'मैं देहमात्र हूं' इस भाव का
त्याग अर्थात् स्वाहा की प्राप्ति होने पर मनुष्य की चेतना अन्नमय , प्राणमय, मनोमय,
विज्ञानमय आदि सभी स्तरों पर नूतन, पवित्र चेतना के रूप में आविर्भूत होती है । इसी
तथ्य को कथा में यह कहकर इंगित किया गया है कि स्वाहा नामक कन्या अग्निदेव को
प्रदान की गई जिससे पावक, पवमान, शुचि प्रभृति ४९ अग्नियां आविर्भूत हुईं । ४९ की
संख्या का रहस्य अभी अन्वेषणीय है । भौतिक धरातल पर यज्ञीय कर्मकाण्ड के अन्तर्गत
अग्नि में हवि समर्पित करते समय भी स्वाहा शब्द के उच्चारण का विधान है । इस विधान
से भी उपर्युक्त वर्णित इसी तथ्य को इंगित किया गया है कि मनुष्य जब देव शक्तियों
के वर्धन हेतु उन्हें दिव्य भोजन(हवि) समर्पित करे, तब अपने देहभाव के त्याग रूप
भाव को भी समर्पित करे अर्थात् 'मैं' देहभाव का त्याग करता हूं इस अर्थ के वाचक
स्वाहा शब्द का उच्चारण करे । देहभाव आत्मभाव(एकत्व भाव) के विपरीत पृथक्ता के भाव
से सम्बन्ध रखता है और पृथक्ता के भाव स्वार्थ सम्बन्धी विचारों को उत्पन्न करके
मनुष्य को दुःख की ओर ले जाते हैं ।
इसी प्रकार कथा में कहा गया है कि दक्ष एवं प्रसूति से उत्पन्न स्वधा नामक कन्या
पितरों को प्रदान की गई जिससे वयुनम् और धारिणी नामक दो कन्याएं उत्पन्न हुईं । जैसा
कि पूर्व में कहा जा चुका है, स्वधा का अर्थ है - ज्योvतिर्मय व्यक्तित्व अर्थात्
आत्मस्वरूप को धारण करना और पितरों का अर्थ है - चेतन - अचेतन मन में बसे हुए
संस्कारों से प्रसूत वे सहज वृत्तियां जो स्थूल तथा सूक्ष्म देह के स्तरों पर
क्रियाशील रहती हैं और जिन पर मनुष्य का नियन्त्रण नहीं होता । ये सहज वृत्तियां ही
नियन्त्रण में न होने के कारण मनुष्य के लक्ष्य में बाधक भी होती हैं । सामान्य
मनुष्य और महापुरुष में यही अन्तर होता है कि जहां सामान्य मनुष्य इनके नियन्त्रण
में होता है, वहीं ये सहज वृत्तियां महापुरुष के नियन्त्रण में होती हैं । अतः ये
सहज वृत्तियां मनुष्य के नियन्त्रण में रहें - इसके लिए यह आवश्यक है कि
ज्योvतिर्मय व्यक्तित्व अर्थात् स्वधा को इन पितरों अर्थात् संस्कार - प्रसूत सहज
वृत्तियों से जोडकर इन्हें अपने नियन्त्रण में रखा जाए । उदाहरण के लिए, राग, द्वेष,
भय, आसक्ति आदि मानव मन की सहज वृत्तियां हैं । देह भाव से जुडकर अर्थात् मैं - मेरे
के आधीन होकर मनुष्य न चाहते हुए भी इन वृत्तियों के आधीन हो जाता है । आत्मभाव में
स्थित होकर अर्थात् स्वधा की सहायता से एकत्व भाव में रहकर राग, द्वेष, आसक्ति आदि
को अपने आधीन बनाया जा सकता है । यही नहीं, स्वधा अर्थात् आत्म - स्वरूप में स्थिति
जब पितरों(संस्कार - प्रसूत सहज वृत्तियों) से संयुक्त होती है, तब व्यक्तित्व में
प्रत्यक्ष ज्ञान शक्ति तथा धारणात्मक शक्ति प्रादुर्भूत होती हैं जिन्हें वैदिक भाषा
में श्रुति तथा स्मृति भी कहा जाता है । इन श्रुति तथा स्मृति शक्तियों को ही कथा
में स्वधा और पितरों की वयुनम् तथा धारिणी नामक कन्याएं कहा गया है । तात्पर्य यह
है कि मनुष्य के विकास में उसके अपने ही संस्कार बाधक बने रहते हैं । इन बाधाओं से
मुक्ति तब ही सम्भव है जब अपने वास्तविक स्वरूप 'मैं शुद्ध - बुद्ध आनन्दस्वरूप
आत्मा हूं' को धारण किया जाए और इस वास्तविक स्वरूप को धारण करना(स्वधा) दक्ष - बल
एवं उच्च मन की सक्रियता(प्रसूति) के परस्पर संयुक्त होने पर ही सम्भव है ।
६. उच्च मन की सक्रियता(प्रसूति) दक्ष - बल से संयुक्त होकर सती नामक १६वी कन्या को
उत्पन्न करती है । सती का अर्थ है - सत्यता बुद्धि अर्थात् बुद्धि का सत्यता में
स्थित होना । 'मैं' आत्मस्वरूप हूं, यह जगत भी आत्मस्वरूप है', यह एक शाश्वत सत्य
है । बुद्धि जब इस सत्यता में स्थित हो जाती है, तब सती कहलाती है । इस सत्यता
बुद्धि का ही आत्मतत्त्व रूप महादेव से सम्यक् सम्बन्ध जुडता है, असत्य बुद्धि का
नहीं । इसीलिए कथा में कहा गया है कि सती नामक कन्या ( सत्यता बुद्धि ) महादेव (आत्म
तत्त्व) को प्रदान की गई ।
सार रूप में यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक मनुष्य के मनश्चैतन्य (जीवात्मा) में जो
दक्ष नामक बल विद्यमान है, उस दक्ष - बल के गर्भ में व्यक्तित्व को दक्षता प्रदान
करने वाली श्रद्धा, मैत्री प्रभृति १६ विशिष्टताएं विद्यमान रहती हैं । दक्ष - बल
के प्रकट होने पर ये विशिष्टताएं प्रकट हो जाती हैं अर्थात् मनुष्य के जीवन में शुभ,
प्रसाद, अभय, सुख, शान्ति आदि का समावेश हो जाता है । मनश्चैतन्य अर्थात् मन देहभाव
से मुक्त होने लगता है और आत्मभाव के संधारण से सहज प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण
प्राप्त होने लगता है । बुद्धि आत्म तत्त्व की सत्यता में स्थित होकर आत्म तत्त्व
से संयुक्त हो जाती है । परन्तु दक्ष - बल के प्रकट होने के लिए ऊर्ध्वमुखी उच्च मन
की सक्रियता चाहिए अर्थात् जब मनुष्य का जीवन, व्यवहार, आचरण सब कुछ उच्च मन से
क्रियान्वित हो रहा हो, तब ही दक्ष - बल प्रकट हो पाता है ।
भाग २ - दक्ष प्रजापति में देहाभिमान की उत्पत्ति
व्यक्तित्व को दक्षता प्रदान करने वाला अद्भुत दक्ष - बल से सम्पन्न यही मनश्चैतन्य
अर्थात् दक्ष प्रजापति एक दिन देहाभिमान से युक्त हो जाता है । इस देहाभिमान की
उत्पत्ति तथा उसके स्वरूप को कथा में निम्न रूप में प्रस्तुत किया गया है -
कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है -
एक बार प्रजापतियों के यज्ञ में सब बडे - बडे ऋषि, देवता, मुनि और अग्नि आदि अपने -
अपने अनुयायियों के सहित एकत्र हुए । प्रजापति दक्ष ने भी उस सभा में प्रवेश किया ।
वे अपने तेज से सूर्य के समान प्रकाशमान थे और उस विशाल सभाभवन का अन्धकार दूर किए
देते थे । उन्हें आया देख ब्रह्मा जी और महादेव जी के अतिरिक्त सभी सभासद अपने -
अपने आसनों से उठकर खडे हो गए । सभासदों से सम्मान प्राप्त करके दक्ष ब्रह्मा जी को
प्रणाम कर अपने आसन पर बैठ गए परन्तु महादेव जी से अभ्युत्थानादि के रूप में कुछ भी
आदर न पाकर दक्ष उनका यह व्यवहार सहन न कर सके । उन्होंने क्रोधपूर्वक महादेव जी को
बहुत कुछ बुरा - भला कहा, तथापि महादेव जी ने उनका कोई प्रतीकार नहीं किया, वे
पूर्ववत् निश्चल भाव से बैठे रहे । इससे दक्ष का क्रोध और भी बढ गया और उन्होंने
महादेव जी को शाप देते हुए कहा - 'यह महादेव देवताओं में अधम है, अब से इसे यज्ञ का
भाग न मिले ।' दक्ष के इस शाप से शिव के प्रधान अनुयायी नन्दीश्वर क्रोधित हो उठे
और उन्होंने दक्ष को बस्तमुख हो जाने तथा दक्ष का अनुमोदन करने वाले ब्राह्मणों को
भी संसार चक्र में पडे रहने का शाप दिया । ब्राह्मण कुल के लिए नन्दीश्वर - प्रदत्त
उस शाप से भृगु क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने शिव के अनुयायियों को प्रतिशाप दिया ।
कथा का तात्पर्य
१. मनुष्य का शरीर एक सभाभवन है । इस सभा का सभापति स्वयं आत्मतत्त्व है जो अपनी
निर्माण(ब्रह्मा), पालन(विष्णु), तथा संहार(महादेव) शक्तियों के साथ विराजमान है ।
इस सभा में मनश्चैतन्य(मन) में विद्यमान अद्भुत संभावनाओं अथवा सामर्थ्यों
(potentials) के रूप में अनेक प्रजापति विद्यमान हैं । ज्ञानेन्द्रियों,
कर्मेन्द्रियों आदि में क्रियाशील शक्तियों के रूप में अनेक देवता और ऋषि यहां
विद्यमान हैं । चेतना के रूप में स्फुरित अग्नि इस सभा में विराजमान है । इन सबसे
युक्त मनुष्य शरीर रूपी यह सभाभवन यद्यपि अन्य समस्त योनियों की अपेक्षा उत्तम है,
परन्तु यह सभाभवन उस समय देदीप्यमान हो उठता है जब मनश्चैतन्य में निहित दक्ष नामक
बल प्रकट होता है, अर्थात् उपर्युक्त वर्णित शक्तियों से युक्त होते हुए भी मनुष्य
शरीर रूपी यह सभाभवन तब तक प्रकाशमान नहीं होता जब तक दक्ष नामक बल का प्राकट्य नहीं
हो जाता, क्योंकि दक्ष - बल के प्राकट्य से ही व्यक्तित्व को अन्धकारमय बनाने वाली
अनेकानेक मान्यताओं(beliefs) का क्षय होता है तथा व्यक्तित्व को प्रकाशमान बनाने
वाले अनेकानेक संकल्पों का उदय होता है जिन्हें कथा में श्रद्धा, मैत्री, स्वाहा,
स्वधा, सती आदि अनेक नामों से सम्बोधित किया गया है (द्रष्टव्य - प्रथम भाग) ।
२. व्यक्तित्व को अद्भुत शोभा प्रदान करने वाला होने के कारण ही दक्ष - बल से युक्त
हमारा यह मनश्चैतन्य अर्थात् मन एक दिन देह के अभिमान से युक्त हो जाता है और देह
का अभिमानी होकर स्वयं को सर्वोपरि मानता हुआ जिस आत्म तत्त्व से अनुप्राणित होता
है, उसे ही अपना सेवक मानकर विपरीत व्यवहार करने लगता है अर्थात् स्वामी के पद पर
विराजमान आत्मतत्त्व सेवक की भांति तथा सेवक के पद पर विद्यमान मन स्वामी की भांति
बन जाता है । कथा में दक्ष प्रजापति रूप मन का महादेव रूप आत्मतत्त्व को भला - बुरा
कहना इसी तथ्य को इंगित करता है ।
३. देह में क्रियाशील शक्तियां देवता कहलाती हैं और इन शक्तियों का मूल स्रोत है -
आत्मा । देहाभिमानी मन देह - केन्द्रित दृष्टि से युक्त होने के कारण देह में
क्रियाशील इन देव रूप शक्तियों को तो स्वीकार करता है, परन्तु उन शक्तियों के मूल
स्रोत आत्म तत्त्व के प्रति उसकी दृष्टि सर्वथा तिरोहित ही रहती है अर्थात्
देहाभिमानी मन (मनुष्य) जीवन में सर्वत्र व्याप्त आत्म तत्त्व को स्वीकार नहीं करता
। आत्म तत्त्व के प्रति इस अस्वीकार भाव को ही कथा में यह कहकर इंगित किया गया है
कि दक्ष प्रजापति ने महादेव को यज्ञ में भाग प्राप्त न होने का शाप दिया ।
४. मन दो प्रकार का संकल्प कर सकता है । 'मैं शुद्ध शान्तस्वरूप आत्मा हूं' - इस
संकल्प के अनुसार आचरण मनुष्य के जीवन में शान्ति और आनन्द लाता है । इसके विपरीत
'मैं देहरूप हूं' - इस संकल्प के अनुसार आचरण जीवन में अहंकार को जन्म देता है ।
'मैं शुद्ध शान्तस्वरूप आत्मा हूं' इस संकल्प के अनुसार आचरण करने पर जीवन में जो
आनन्द आता है, उसे ही कथा में महादेव का प्रधान अनुयायी नन्दीश्वर कहा गया है तथा '
मैं देहमात्र हूं' इस संकल्प के अनुसार आचरण करने पर जीवन में जिस अहंकार का
प्रादुर्भाव होता है, उसे ही दक्ष(मन) का 'बस्तमुख' हो जाना कहा गया है । जैसे बस्त
अर्थात् बकरा ' मैं मैं' करता है, वैसे ही अहंकार युक्त मन वाला मनुष्य भी 'मैं मैं
' करने लगता है ।
५. 'मैं देहमात्र हूं ' इस संकल्प के कारण मन के अहंकार युक्त होने पर मनुष्य के
भीतर कार्यरत उच्चतर चेतनाएं भी अपने कार्य से विमुख होकर विपरीत कार्य करने लगती
हैं । ये उच्चतर चेतनाएं ही ब्राह्मण कहलाती हैं तथा इनके विपरीत आचरण को ही कथा
में नन्दीश्वर द्वारा ब्राह्मणों का अभिशप्त होना कहा गया है ।
भाग ३ - दक्ष यज्ञ विध्वंस - एक विवेचन
दक्षता प्रदायक अद्भुत दक्ष - बल रखने वाला मनुष्य का मन देहाभिमान से युक्त होकर
अपने ही दक्षता के यज्ञ को सफल नहीं कर पाता । दक्षता के इस यज्ञ की असफलता के कारणों
का विवेचन यहां प्रस्तुत है । सर्वप्रथम कथा को जान लेना आवश्यक है ।
कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है -
एक बार दक्ष ने बृहस्पतिसव नामक महायज्ञ का आयोजन किया परन्तु उसमें शिव को
निमन्त्रित नहीं किया । पिता के द्वारा निमन्त्रित न होने पर भी सती ने यज्ञ में
सम्मिलित होने का शिव से आग्रह किया और शिव के मना करने पर भी बन्धुजनों के स्नेहवश
सती माता - पिता के घर चली गई । सती सेवकों के साथ दक्ष की यज्ञशाला में पहुंची ।
सती ने देखा कि उस यज्ञ में शिव के लिए कोई भाग नहीं दिया गया है और पिता दक्ष उनका
बडा अपमान कर रहा है । इससे उन्हें बहुत क्रोध हुआ और उन्होंने पति शिव की प्रशंसा
तथा पिता की निन्दा करते हुए योगाग्नि द्वारा अपनी देह का त्याग कर दिया । सती का
यह अद्भुत प्राणत्याग देख शिवजी के पार्षद दक्ष को मारने के लिए उद्धत हुए, परन्तु
भृगु नामक अध्वर्यु द्वारा यज्ञकुण्ड से उत्पन्न हुए ऋभुओं के आक्रमण से वे सब इधर
- उधर भाग गए । नारद जी के मुख से सती के प्राणत्याग का समाचार सुनकर शिव अत्यन्त
क्रोधित हुए । उनके क्रोध से रुद्र(वीरभद्र) का प्रादुर्भाव हुआ । शिव ने रुद्र को
दक्ष - यज्ञ नष्ट करने की आज्ञा दी । शिव की आज्ञा से रुद्र के सेवकों ने दक्ष के
यज्ञ मण्डप को तहस - नहस कर डाला । यज्ञ के ऋत्विज, सदस्य और देवता लोग जहां तहां
भाग गए । रुद्र/वीरभद्र ने भृगु की दाढी - मूंछ नोच ली, भग देवता की आंखें निकाल
ली, पूषा के दांत तोड दिए और दक्ष का सिर धड से अलग कर दिया । यज्ञ का विध्वंस करके
वे कैलास पर्वत को लौट गए ।
कथा में निहित रहस्यत्मकता
अब हम कथा में निहित रहस्यत्मकता को समझने का प्रयास करे -
१. कथा में कहा गया है कि दक्ष ने बृहस्पतिसव नामक महायज्ञ का आयोजन किया परन्तु उस
यज्ञ में शिव को निमन्त्रित नहीं किया ।
दक्ष मनुष्य का अहंकार युक्त मन(मनश्चैतन्य अथवा जीवात्मा) है और शिव आत्म तत्त्व
का वाचक है । बृह्स्पतिसव नामक यज्ञ दक्षता - प्राप्ति का यज्ञ है । अहंकार युक्त
मनुष्य जीवन में दक्षता तो प्राप्त करना चाहता है, परन्तु शिव को निमन्त्रित नहीं
करता अर्थात् देहाभिमानी मनुष्य स्वयं को देहमात्र मानकर तथा उस देह को ही सर्वोपरि
समझकर अपने ही वास्तविक स्वरूप ( मैं शान्तस्वरूप आत्मा हूं ) का न तो स्मरण करता
है तथा न ही उसे धारण करता है । इससे स्वामी - सेवक सम्बन्ध का विपर्यय हो जाता है
अर्थात् स्वामी रूप रथी सेवक रूप रथ को नहीं चलाता, अपितु रथ ही रथी को चलाने लगता
है । दक्षता के यज्ञ में सबसे पहली बाधा यही है ।
२. कथा में कहा गया है कि पिता द्वारा निमन्त्रित न होने पर भी सती स्वजनों के
स्नेहवश पिता के घर चली गई ।
सती का अर्थ है - आत्म तत्त्व के प्रति सत्यता बुद्धि अर्थात् बुद्धि का यह संकल्प
कि आत्मा ही सत्य है । प्रथम भाग में हम स्पष्ट कर चुके हैं कि बुद्धि में आत्म
तत्त्व के प्रति यह सत्यता का संकल्प तब उत्पन्न होता है जब हमारे मनश्चैतन्य(मन)
में विद्यमान दक्ष नामक बल उच्च मन की सक्रियता(प्रसूति) के सहयोग से प्रकट होता
है, अर्थात् प्रकट हुआ दक्ष - बल सती का जन्मदाता है । मनश्चैतन्य (मन) के दक्ष
नामक बल और आत्म तत्त्व के प्रति सत्यता बुद्धि रूपी सती के इसी पुराने सम्बन्ध को
कथा में पिता - पुत्री का सम्बन्ध कहकर निरूपित किया गया है । इसी सम्बन्ध से
प्रेरित होकर आत्म तत्त्व के प्रति सत्यता बुद्धि रूपी सती पिता दक्ष के घर जाने के
लिए आग्रह करती है अर्थात् एक ओर तो मनुष्य की सती बुद्धि आत्म तत्त्व रूप महादेव
से संयुक्त रहती है तथा दूसरी ओर पुराने सम्बन्ध के आधार पर मन से भी जुडी रहती है
। मन के परिवर्तित स्वरूप (देहाभिमानता) से अनभिज्ञ रहकर उस मन के समीप जाना ही सती
बुद्धि के विनाश का कारण है ।
३. कथा में कहा गया है कि पिता के यज्ञ में पहुंचकर सती ने शिव का निरादर देखा और
स्वयं को योगाग्नि से भस्म कर दिया ।
इस कथन द्वारा यह इंगित किया गया है कि मनुष्य के देहाभिमान से युक्त मन में जब
आत्म सत्ता के प्रति सम्मान तथा स्वीकार भाव नहीं होता , तब
उसकी बुद्धि में यह सत्य संकल्प कि आत्म तत्त्व ही सत्य है - कैसे टिक सकता है? वह
तो स्वाभाविक रूप से ही भस्मसात् हो जाता है । आत्म तत्त्व के प्रति सत्य संकल्प का
स्वाभाविक रूप से भस्म होना ही सती का योगाग्नि से भस्म होना कहा गया है । भाव यह
है कि देहाभिमानी मनुष्य को जैसे ही आत्म स्वरूप की विस्मृति होती है, वैसे ही उसकी
बुद्धि से आत्मा की सत्य स्वरूपता का संकल्प भी समाप्त हो जाता है ।
४. कथा में कहा गया है कि सती का प्राणत्याग देखकर सती के साथ आए हुए शिव के सेवक
दक्ष को मारने को उद्धत हुए , परन्तु भृगु द्वारा उत्पन्न किए गए ऋभुओं के आक्रमण
से वे सब इधर - उधर भाग गए ।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, सती के प्राणत्याग का अर्थ है - आत्म - तत्त्व के
प्रति बुद्धि के सत्य संकल्प का नष्ट हो जाना । मन के देहाभिमान से ग्रस्त हो जाने
पर आत्म तत्त्व के प्रति सत्यता बुद्धि का नाश हो जाता है । प्रस्तुत कथन में शिव
के सेवक मनुष्य के सकारात्मक संकल्पों के तथा भृगु से उत्पन्न हुए ऋभुगण देहाभिमान
युक्त मन अर्थात् दक्ष की सहायक ज्ञानशक्तियों के प्रतीक हैं । यहां यह इंगित किया
गया है कि मन की देहाभिमान से ग्रस्तता एक प्रबल नकारात्मक संकल्प है । इस
नकारात्मक संकल्प के उदय से सत्यता बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य के सकारात्मक
संकल्पों में बहुत उथल - पुथल होती है और वे इस प्रबल नकारत्मक संकल्प(देहाभिमान
रूप दक्ष) को मारना भी चाहते हैं, परन्तु प्रबल नकारात्मक संकल्प की सहायक
शक्तियों(ऋभुओं) के सामने वे टिक नहीं पाते और बिखर जाते हैं ।
५. कथा में कहा गया है कि सती के प्राणत्याग का समाचार नारद जी ने महादेव जी से
निवेदित किया ।
पौराणिक साहित्य में 'नारद' समग्रता में स्थित एक ऐसी चेतना है जो पृथ्वी लोक से
लेकर ब्रह्मलोक तक सर्वत्र अबाधित गति से भ्रमण करती है और एक स्थान के समाचार दूसरे
स्थान तक पहुंचाती रहती है । आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में इस नारद चेतना को ही
व्यष्टि और समष्टि में क्रियाशील 'आकर्षण का नियम' नाम दिया गया है । इस नियम के
अनुसार मनुष्य जैसा सकारात्मक अथवा नकारात्मक भाव या विचार रखता है, उस भाव या
विचार की तरंगें तुरन्त अस्तित्व में पहुंच जाती हैं । महादेव सर्वत्र व्याप्त आत्म
तत्त्व का प्रतीक है । अतः सती के प्राणत्याग का समाचार नारद द्वारा महादेव के पास
पहुंचने का अर्थ हुआ - देहाभिमान के उदय से आत्मा की सत्यता के नाश रूप नकारात्मक
संकल्प का तरंग रूप में आकर्षण के नियम द्वारा अस्तित्व में पहुंच जाना ।
६. कथा में कहा गया है कि सती का प्राणत्याग सुनकर महादेव अत्यन्त क्रुद्ध हुए ।
उनके शरीर से रुद्र(वीरभद्र) का आविर्भाव हुआ । महादेव ने रुद्र को दक्षयज्ञ ध्वंस
करने की आज्ञा दी ।
यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि मनुष्य के मन के सकारात्मक अथवा नकारात्मक भाव या
विचार की तरंगें आकर्षण के नियम(नारद) द्वारा अस्तित्व(ब्रह्माण्ड) में पहुंचती हैं
और वहां विद्यमान तरंगों से प्रतिक्रिया करती हैं । अस्तित्व का अर्थ है - आत्म
तत्त्व का अपनी निर्माण शक्ति(ब्रह्मा), पालन शक्ति(विष्णु) तथा संहार शक्ति(महादेव
) के साथ विद्यमान होना । मनुष्य के विचारों की तरंगें अस्तित्व में पहुंच कर वहां
विद्यमान समान तरंगों से प्रतिक्रिया करके अधिक प्रबल हो जाती हैं और पुनः अपने
स्रोत तक (उसी मनुष्य तक जहां से वे तरंगें प्रवाहित हुई थी) लौटकर अपने स्रोत को
लाभ अथवा हानि पहुंचाती हैं । अर्थात् सकारात्मक विचार 'मैं शान्त स्वरूप आत्मा
हूं' की तरंगें अस्तित्व में पहुंचकर वहां विद्यमान सकारात्मक तरंगों के साथ
प्रतिक्रिया करके समान समान को आकर्षित करता है(like attracts like) के नियम के
आधार पर अधिक प्रबल होकर अपने स्रोत तक लौटकर स्रोत को (मनुष्य मन को ) लाभ पहुंचाती
हैं । इसके विपरीत नकारात्मक विचार 'मैं देहस्वरूप हूं' की तरंगें अस्तित्व में
पहुंचकर वहां विद्यमान नकारात्मक तरंगों के साथ प्रतिक्रिया करके अधिक प्रबल होकर
अपने स्रोत तक लौटकर स्रोत को हानि पहुंचाती हैं । प्रस्तुत कथा में इसी तथ्य को
निरूपित किया गया है । महादेव का अर्थ है - अस्तित्व के रूप में विद्यमान आत्म
तत्त्व । महादेव के क्रुद्ध होने का अर्थ है - अस्तित्व में पहुंची हुई नकारात्मक
तरंग का वहां विद्यमान नकारात्मक शक्ति के साथ प्रतिक्रिया करना । महादेव के क्रोध
से रुद्र(वीरभद्र) के उत्पन्न होने का अर्थ है - उस प्रतिक्रिया के फलस्वरूप
नकारात्मक शक्ति का प्रबल स्वरूप धारण कर लेना । महादेव द्वारा रुद्र को दक्षयज्ञ
के विध्वंस की आज्ञा देना उपरोक्त वर्णित नियम की अनिवार्यता को इंगित करता है ।
व्यष्टि तथा समष्टि में जो नियम क्रियाशील है, उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती ।
अस्तित्व में पहुंची हुई नकारात्मक तरंग प्रतिक्रिया स्वरूप प्रबल होकर अपने स्रोत
तक अवश्य ही लौटेगी ।
७. कथा में कहा गया है कि महादेव से आज्ञा पाकर रुद्र(वीरभद्र) दक्ष के यज्ञ में
पहुंचा और यज्ञमण्डप को तहस - नहस कर दिया ।
यज्ञमण्डप मनस क्षेत्र को इंगित करता है । मनुष्य के नकारात्मक विचार की तरंगें
अस्तित्व में पहुंचकर, प्रबल होकर जब वापस अपने स्रोत तक लौटती हैं, तब सबसे पहले
उसी देहाभिमानी मनुष्य के मनस क्षेत्र को तहस नहस करती हैं । तहस - नहस करने का
अर्थ यह है कि एक नकारात्मक विचार नाना नकारात्मक विचारों को उत्पन्न करके मन को
इतना आन्दोलित कर देता है कि वह कभी - कभी आत्महत्या जैसे अनपेक्षित विचार से भी
संयुक्त हो जाता है । मन में निरन्तर अनjर्गल विचारों की हलचल मची रहती है और अन्ततः
मन अत्यन्त अशान्त बना रहता है ।
८. कथा में कहा गया है कि रुद्र ने दक्ष यज्ञ में पहुंचकर दक्ष का सिर काट दिया,
पूषा के दांत तोड दिए, भग को अन्धा कर दिया और भृगु की दाढी मूंछ नोच ली ।
यह कथन इंगित करता है कि देह केन्द्रित चेतना से उत्पन्न अहंकार रूप नकारात्मक शक्ति
न केवल मनुष्य के मनस क्षेत्र को ही अशान्त बनाती है, अपितु उसके सम्पूर्ण
व्यक्तित्व को ही प्रभावित करती है ।
दक्ष का सिर काटना इस बात का संकेत है कि नकारात्मक शक्ति अहंकारी मन से शनैः - शनैः
विवेक - विचार का हरण कर लेती है ।
पूषा देवता वह शक्ति है जो मनुष्य शरीर का पालन करती है । दन्त शब्द लक्ष्य का सूचक
है । अतः पूषा के दांत तोडने का अर्थ है - शरीर में क्रियाशील पालन शक्ति का
लक्ष्यविहीन हो जाना ।
भग देवता वह शक्ति है जो मनुष्य के भीतर पडे हुए संस्कार रूप बीजों की कृषि करती है
अर्थात् जैसे मनुष्य बाह्य रूप में बीजों को बोकर उनकी खेती करता है, वैसे ही
मनुष्य के भीतर जन्म - जन्मान्तरों में इकट्ठेv किए हुए जो संस्कार रूप बीज
विद्यमान रहते हैं, उन बीजों को बोकर उनकी कृषि करके उत्तम, मध्यम अथवा अधम फल को
प्रदान करने वाला देवता भग है । अतः भग का अर्थ है - भाग या भाग्य । भाग्य द्वारा
प्रदान किया गया प्रत्येक फल मनुष्य को स्वीकार करना ही होता है, परन्तु मन की
नकारात्मक शक्ति इस भाग को भी अन्धा बना देती है, अर्थात् मनुष्य अज्ञान युक्त होकर
जीवन में आई अच्छी, बुरी परिस्थिति को न तो स्वीकार करता है तथा न उसका
उत्तरदायित्व स्वयं वहन ही करता है, अपितु दूसरे को ही उसके लिए जिम्मेदार ठहराता
है ।
भृगु देवता वह शक्ति है जो ज्ञानाग्नि द्वारा मनुष्य के कर्मों को भस्म कर देती है
। भृगु देवता के दाढी - मूंछ नोंच लेने का अर्थ है - सम्मान छीन लेना । मनुष्य के
भीतर कितना भी ज्ञान भरा हो, परन्तु यदि वह स्वयं को देहस्वरूप मानकर नकारात्मक
विचारों से ग्रस्त हो, तब वह प्रभूत ज्ञान भी शोभनीय नहीं होता ।
भाग ४ - दक्ष यज्ञ की पूर्ति
प्रथम भाग में कहा गया है कि प्रत्येक मनुष्य का मन दक्ष नामक बल से युक्त है । यह
दक्ष - बल मन(मनश्चैतन्य) में अप्रकट रूप से रहता है, परन्तु उच्च मन की सक्रियता
से संयुक्त होकर प्रकट हो जाता है । तब इससे अनेक प्रकार की ऐसी - ऐसी विशिष्टताएं
उत्पन्न होती हैं जो व्यक्तित्व को दक्षता(कुशलता) प्रदान करती हैं ।
द्वितीय एवं तृतीय भाग में कहा गया है कि व्यक्तित्व को दक्षता प्रदान करने वाला
मनश्चैतन्य का यही दक्ष नामक बल जब देहाभिमान से युक्त हो जाता है, तब इसका दक्षता
प्रदान करने वाला यज्ञ सफल नहीं होता क्योंकि देहाभिमान की नकारात्मक शक्ति समान
शक्तियों को आकर्षित करके दक्षता के यज्ञ को ध्वस्त कर देती है ।
प्रस्तुत चतुर्थ भाग में कहा गया है कि देहाभिमान की नकारात्मक शक्ति से नष्ट हुआ
दक्षता का यज्ञ आत्म - स्वरूप का स्मरण करके पुनः सम्पन्न किया जा सकता है ।
कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है -
यज्ञ - विध्वंस से डरे हुए देवता यज्ञ के ऋत्विज और सदस्यों को साथ लेकर ब्रह्मा जी
के पास गए । ब्रह्मा जी उन सबको साथ लेकर शिव के समीप पहुंचे । शिव कैलास पर्वत पर
वट वृक्ष की छाया में विराजमान थे । परस्पर प्रणाम के बाद ब्रह्मा जी ने शिव से
अपूर्ण यज्ञ का पुनरुद्धार करने, यजमान दक्ष के जी उठने, भृगु के दाढी मूंछ से
युक्त हो जाने, भग देवता को नेत्र मिलने, पूषा के दांतयुक्त होने तथा घायल ऋत्विजों
के पुनः अंग - प्रत्यंग से युक्त हो जाने के लिए प्रार्थना की । ब्रह्मा जी के इस
प्रकार प्रार्थना करने पर शिव ने प्रसन्नतापूर्वक कहा - दक्ष अजमुख हो जाएं , भग
मित्र के नेत्रों से अपना यज्ञभाग देखें, पूषा यजमान के दांतों से पिसा अन्न भक्षण
करे, देवों के अंग - प्रत्यंग स्वस्थ हो जाएं, भृगु जी को बकरे की सी दाढी - मूंछ
हो जाए, जिनकी भुजाएं टूट गई हैं, वे अश्विनी कुमारों की भुजाओं से तथा जिनके हाथ
नष्ट हो गए हैं, वे पूषा के हाथों से काम करे । इसके साथ ही शिव ने दक्ष की यज्ञशाला
में पहुंचकर दक्ष के धड से यज्ञपशु का सिर जोड दिया, जिससे दक्ष तत्काल सोकर उठे
हुए की भांति जी उठे । शिव पर दृष्टि पडते ही उनके हृदय की कालिमा नष्ट हो गई और वह
शरत्कालीन सरोवर के समान स्वच्छ हो गया । शिव की स्तुति करके दक्ष ने जैसे ही
विशुद्ध चित्त से हरि का ध्यान किया, वैसे ही भगवान् सहसा वहां प्रकट हो गए । सभी
ने श्रीहरि की स्तुति की । श्रीहरि ने दक्ष के प्रति अपनी सर्वस्वरूपता का उपदेश
किया और दक्ष ने भी श्रीहरि तथा अन्य सभी देवताओं का यज्ञ से यजन कर यज्ञ का
उपसंहार किया ।
कथा की प्रतीकात्मकता
प्रत्येक मनुष्य आत्मा और देह का एक सुन्दर जोड है । दोनों का अन्योन्याश्रित
सम्बन्ध है क्योंकि आत्मा देह के माध्यम से प्रकट होता है और देह आत्मा के आश्रय से
क्रियाशील होता है । आत्मा रथी है तो देह रथ । जीवन - यज्ञ में दक्षता का समावेश तभी
होता है जब दोनों को उनके यथायोग्य स्थान पर रखकर चला जाए । विपर्यय होने पर दक्षता
का आना असम्भव है । तीसरे भाग में हम देख भी चुके हैं कि आत्मा रूपी रथी को
अस्वीकार करके तथा देह को रथी बनाकर दक्षता का यज्ञ किस प्रकार ध्वस्त हुआ । दक्षता
के यज्ञ की पूर्ति हेतु इसी बिन्दु को यहां प्रतीक भाषा में प्रस्तुत किया गया है ।
१. कथा में कहा गया है कि यज्ञ का ध्वंस होने पर डरे
हुए देवता तथा सभासद आदि ब्रह्मा जी के पास पहुंचे और ब्रह्मा जी सबको साथ लेकर
उत्तर दिशा में स्थित महादेव जी के पास पहुंचे ।
देवता और सभासद मनुष्य शरीर में कार्यरत वे विभिन्न शक्तियां हैं जो शरीर की
व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाती हैं । देहाभिमान के नकारात्मक विचार से मनुष्य का
मन अशान्त और अस्थिर रहता है और मन के अशान्त, अस्थिर होने से शरीर की समग्र
व्यवस्था भी अस्त - व्यस्त हो जाती है । शरीर की व्यवस्था का अस्त - व्यस्त होना ही
मानों देवों, सभासदों का भयभीत होना है । ब्रह्मा हमारे बृंहणशील अर्थात् वर्धनशील
मनश्चैतन्य का प्रतीक है । दक्षता का यज्ञ सम्पन्न करने के लिए यह आवश्यक है कि
मनुष्य सर्वप्रथम अपनी अस्त - व्यस्त हुई शक्तियों अर्थात् अनेकानेक लक्ष्यों में
बिखरी हुई शक्तियों को इकट्ठा करे । तत्पश्चात् वर्धनशील मन से संयुक्त होकर मन में
इस संकल्प को दृढतापूर्वक धारण करे कि 'मैं शुद्ध शान्तस्वरूप आत्मा हूं' । मन का
इस संकल्प में स्थित होना ही देवताओं और ब्रह्मा का महादेव के पास पहुंचना है ।
महादेव का निवास उत्तर दिशा में कहा गया है । उत्तर शब्द उच्चता का, ऊर्ध्व स्थिति
का द्योतक है । जन्मों - जन्मों से हमारा मन इस संकल्प का अभ्यस्त हो गया है कि
'मैं देहरूप हूं ' । इस असत् संकल्प को प्रयत्नपूर्वक छोकर 'मैं शान्त स्वरूप आत्मा
हूं' इस नूतन, सत्य संकल्प को धारण करना और उसमें स्थित होना ही ऊर्ध्व में, उत्तर
में स्थित होना है ।
२. कथा में कहा गया है कि ब्रह्मा ने महादेव से यज्ञ
की पूर्णता हेतु प्रार्थना की । महादेव ने यज्ञ की पूर्णता का आश्वासन दिया ।
महादेव ने कहा कि दक्ष अजमुख हो जाएं, भग मित्र के नेत्रों से देखें, पूषा यजमान के
दांतों से भक्षण करे तथा भृगु को बकरे की सी दाढी मूंछ प्राप्त हो ।
यह कथन इंगित करता है कि जब हमारा वर्धनशील अर्थात् उन्नति की ओर बढने वाला मन (ब्रह्मा)
आत्म - तत्त्व के प्रति लक्ष्य पूर्ति हेतु प्रार्थना के भाव से युक्त होता है, तब
आत्म तत्त्व अर्थात् अस्तित्व से तदनुकूल प्रतिक्रिया प्राप्त होती है (समान समान
को आकर्षित करता है - के नियम के अनुसार, जिसकी विवेचना हम पूर्व भाग में कर चुके
हैं ।
आत्मस्वरूप में स्थित होने पर व्यक्तित्व पूर्णरूपेण रूपान्तरित हो जाता है । दक्ष
के अजमुख होने का अर्थ है - मन का आत्मदृष्टि से युक्त होना । देहस्वरूप में स्थित
होने पर जो मन 'बस्तमुख' अर्थात् अहंकार केन्द्रित दृष्टि से युक्त रहता है, वही मन
रूपान्तरित होकर परमात्म केन्द्रित(अजमुख) हो जाता है ।
भग द्वारा मित्र के नेत्रों से देखने का अर्थ है - मनुष्य की भाग या भाग्य के प्रति
मित्रवत् दृष्टि अर्थात् प्रत्येक शुभ - अशुभ भाव, विचार या घटना के प्रति
स्नेहपूर्ण व्यवहार तथा स्वीकृति ।
पूषा द्वारा यजमान के दांतों से भक्षण करने का अर्थ है - आत्म - स्वरूप में स्थित
होने पर शरीर को पोषित करने वाली पूषा शक्ति का स्वतः सुचारु रूप से कार्य करना ।
भृगु को बकरे सी दाढी - मूंछ प्राप्त होने का अर्थ है - देहाभिमान की स्थिति में
अन्त:स्थित जो ज्ञान शोभनीय और सम्माननीय नहीं होता, वही ज्ञान आत्म स्वरूप में
स्थित होने पर शोभाशील और सम्मानयुक्त हो जाता है ।
३. कथा में कहा गया है कि शिव ने दक्ष की यज्ञशाला में पहुंचकर दक्ष के धड से
यज्ञपशु का सिर जोड दिया, जिससे दक्ष तत्काल सोकर उठे हुए की भांति जी उठे ।
पशु का अर्थ है - पाश अर्थात् बन्धन से युक्त और यज्ञपशु का अर्थ है - बन्धन युक्त
शक्ति का बन्धन से मुक्त होना । जब तक मनुष्य 'मैं देह स्वरूप हूं' इस प्रकार के
देहाभिमान से युक्त रहता है, तब तक सत् असत् को पहचानने वाली उसकी विवेक शक्ति
प्रसुप्त अवस्था में रहती है, इसलिए वह देह को सत् स्वरूप और आत्मा को असत्स्वरूप
समझता हुआ व्यवहार करता है । परन्तु जैसे ही उसे अपनी आत्मस्वरूपता का बोध होता है,
वैसे ही उसकी सत् असत् को पहचानने वाली विवेक शक्ति जाग्रत हो जाती है । आत्मस्वरूप
में स्थिति से विवेकशक्ति का जाग्रत होना ही महादेव द्वारा दक्ष के धड से यज्ञपशु
का सिर जोडना है । आत्मस्वरूप में अजाग्रति दक्ष रूप मन की प्रसुप्त अथवा मृत अवस्था
है । इसके विपरीत, आत्मस्वरूप में जाग्रति ही दक्ष रूप मन की जाग्रत अथवा जीवित
अवस्था है, जिसे कथा में दक्ष का मृत अवस्था से जी उठना कहा गया है ।
४. कथा में कहा गया है कि शिव पर दृष्टि पडते ही दक्ष
की हृदय कालिमा नष्ट हो गई, उन्हें श्रीहरि के दर्शन हुए और श्रीहरि ने उन्हें अपनी
सर्वस्वरूपता का उपदेश दिया । दक्ष का यज्ञ निर्विघ्न पूर्ण हुआ ।
प्रस्तुत कथन का अभिप्राय यही है कि आत्मस्वरूप की धारणा से आत्मस्वरूप में स्थिति
होने पर मन के समस्त मल समाप्त हो जाते हैं और मन की इस शुद्ध स्थिति में ही मनुष्य
को जगत् की परमात्मस्वरूपता का ज्ञान होता है । आत्मस्वरूप के ज्ञान द्वार जगत् के
रूप में विद्यमान परमात्मा के दर्शन होना ही दक्षता के यज्ञ की पूर्णता है । आत्मा
- परमात्मा के योग से प्राप्त यह दक्षता ही मनुष्य को सफलता की नई ऊंचाइयां प्रदान
करती है ।
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